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महानिशीथ-५/-/८४४
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उसने तीर्थंकर नामकर्म इकट्ठा किया था । एक ही भव बाकी रखा था और भव सागर पार कर दिया था । तो फिर अनन्त काल तक संसार में क्यों भटकना पड़ा । हे गौतम ! अपनी प्रमाद के दोष की वजह से । इसलिए भव विरह इच्छनेवाले शास्त्र का सद्भाव जिसने अच्छी तरह से पहचाना है ऐसे गच्छाधिपति को सर्वथा सर्व तरह से संयम स्थान में काफी अप्रमत्त बने । इस प्रकार मैं तुम्हे कहता हूँ । अध्ययन-५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-६-गीतार्थविहार) [८४५] हे भगवंत ! जो रात-दिन सिद्धांत सूत्र पढ़े, श्रवण करे, व्याख्यान करे, सतत चिन्तन करे वो क्या अनाचार आचरण करे । हे गौतम ! सिद्धान्त में रहे एक भी शब्द जो जानते है, वो मरणान्ते भी अनाचार सेवन न करे ।
[८४६] हे भगवंत ! तो दश पूर्वी महाप्रज्ञवाले नंदिषण ने प्रवज्या का त्याग करके क्यों गणिका के घर में प्रवेश किया ? ऐसा कहा जाता है कि हे गौतम !
[८४७-८५२] उसे भोगफल स्खलना की वजह हुई । वो हकीकत प्रसिद्ध है । फिर भी भव के भय से काँपता था | और उसके बाद जल्द दीक्षा अंगीकार की | शायद पाताल ऊँचे मुखवाला हो, स्वर्ग नीचे मुखवाला हो तो भी केवली ने कहा वचन कभी भी फेरफार को विघटित नहीं होता | दुसरा उसने संयम की रक्षा के लिए काफी उपाय किया, शास्त्र के अनुसार सोचकर गुरु के चरणकमल में लिंग-वेश अर्पण करके कोइ न पहचाने वैसे देश में चला गया । उस वचन का स्मरण करते हुए अपने चारित्र, मोहनीय कर्म के उदय से सर्व, विरति, महाव्रत का भंग और बद्ध, स्पृष्ट, निकाचित्त ऐसे कर्म का भोगफल भुगतता था । हे भगवंत ! शास्त्र में निरुपण किए ऐसे उसने कौन-से उपाय सोचे कि ऐसा सुन्दर श्रमणपन छोड़कर आज भी वो प्राण धारण करता है ? हे गौतम ! केवली प्ररूपीत उपाय को बतानेवाले सूत्र का स्मरण करेंगे या विषय से पराभवित मुनि इस सूत्र को याद करे ।
[८५३-८५५] जब विषय उदय में आए तब काफी दुष्कर, घोर ऐसे तरह का आँठ गुना तप शुरु करे । किसी रात को विषय रोकने में समर्थ न हो शके तो पर्वत पर से भृगुपात करे, काँटेवाले आसन पर बैठे, विषपान करे, उबँधन करके फाँसी चड़कर मर जाना बेहतर है, लेकिन महाव्रत या चारित्र की ली गइ प्रतिज्ञा का भंग न करे । विराधना करना उचित नहीं है । शायद यह किए गए उपाय करने में समर्थ न हो तो गुरु को वेश समर्पण करके ऐसे विदेश में चला जाए कि जहाँ के समाचार परिचित क्षेत्र में न आए, अणुव्रत का यथाशक्ति पालन करना कि जिससे भावि में निर्ध्वंसाता न पाए ।
[८५६-८६४] हे गौतम ! नंदिषेण ने जब पर्वत पर से गिरने का आरम्भ किया तब आकाश में से ऐसी वाणी सुनाइ दी कि पर्वत से गिरने के बाद भी मौत नहीं मिलेगी । जितने में दिशामुख की ओर देखा तो एक चारण मुनि दिखाइ दिए । तो उन्होंने कहा कि तुम्हारी अकाले मौत नहीं होगी । तो फिर विषम झहर खाने के लिए गया । तब भी विषय का दर्द न सहा जाने पर काफी दर्द होने लगा, तब उसे फिक्र लगी कि अब मेरे जीने का क्या प्रयोजन ? मोगरे के पुष्प और चन्द्र समान निर्मल, उज्ज्वल वर्णवाले इस प्रभु के शासन को