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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
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होते है । इसीलिए साधु को तक्र आदि की छुट दी है, फिर भी कहा है कि प्रायः साधुओ को विगईयां - घी, दुध, दहीं आदि ग्रहण किए बिना ही अपने शरीर का निर्वाह करना, कदाचित यदि शरीर ठीक न हो तो संयम योग की वृद्धि के लिए एवं शरीर की शक्ति टीकाने के लिए विगईयां ग्रहण करे । विगई में तक्र आदि उपयोगी है इसीलिए उसका ग्रहण करे । अन्य विगईयां तो विशेष कारण हो तो ही ग्रहण करे । क्योंकि विगई ज्यादा लेपकृत् द्रव्य होने से उसकी गृद्धि बढती है ।
लेपरहित द्रव्य - सुखे पकाये हुए चावल आदि, मांडा, जव का साथवा, उडद, चोला, वटाणे, चने, तुवर आदि सब सुखे हो तो भाजन में चीपकते नहीं है । और भाजन लिप्त न होने से फिर धोना नहीं पड़ता ।
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अल्प लेपयुक्त द्रव्य - शब, कोद्रव, तक्रयुक्त भांत, पकाये हुए मुंग, दाल आदि द्रव्यो में पश्चात्कर्म कदाचित होवे कदाचित नहीं भी होवे ।
बहुपयुक्त द्रव्य - खीर, दूध, दहीं, दूधपाक, तेल, घी, गुड़ का पानी इत्यादि । जिस द्रव्य से भाजन खरडाते है और देने के बाद वह भाजन अवश्य धोना पडे ऐसे द्रव्यो को पापभीरु साधु ग्रहण नहीं करते है । अपवाद - पश्चात्कर्म न होवे ऐसे द्रव्य लेना कल्पे । खरडाये हुए हाथ, खरडाया हुआ भाजन एवं सविशेष द्रव्य तथा निख शेष द्रव्य के योग से आठ भेद होते है । इन आठ भेदो में १-३-५-७ भेदवाला कल्पता है और २-४६-८ भेद वाला नहीं कल्पता जैसे कि - खरडाये हुए हाथ, खरडाया हुआ भाजन और सविशेष द्रव्य पहला भेद है तो वह कल्पता है । हाथ-भाजन या हाथ और भाजन दोनों, यदि साधु के आने से पहले गृहस्थने अपने लिए लिप्त किए हो मगर साधु के लिए न लिप्त किए हो तो उसमें पश्चात्कर्म दोष नहीं होता । जिसमें द्रव्य शेष बच जाता हो उसमें साधु के लिए भी हाथ या पात्र खरडाये हुए हो तो भी साधु के लिए धोने का नहीं है इसीलिए साधु को ना कल्पता है ।
[६६९-६७०] गृहस्थ आहारादि को बहेराते समय भूमी पर बुन्दे गिराये तो वह "छर्दितदोषयुक्त" आहार कहलाता है । उसमें सचित्त, अचित्त एवं मिश्र की तीन चतुर्भंगी होती है । उसका पृथ्वीकायादि छह के साथ भेद कहने से कुल ४३२ भेद होते है । प्रथम चतुर्भंगी - सचित्त वस्तु सचित्त में गीरे, मिश्र वस्तु सचित्त में गीरे, सचित्त वस्तु मिश्र में गीरे और अचित्त वस्तु अचित्त में गीरे ।
दुसरी चतुर्भंगी - सचित्त वस्तु सचित्त में गीरे, अचित्त वस्तु सचित्त में गीरे, सचित्त वस्तु अचित्त में गीरे और अचित्त वस्तु अचित्त में गीरे ।
तीसरी चतुर्भगी - मिश्रवस्तु मिश्र में गीरे, अचित्त वस्तु मिश्र में गीरे, अचित्त वस्तु अचित्त में गीरे और मिश्र वस्तु अचित्त में गीरे ।
सचित्त पृथ्वीकायादि में सचित्त पृथ्वीकायादि के ३६ भेद, सचित्त पृथ्वीकायादि में मिश्र पृथ्वीकायादि के ३६ भेद, मिश्र पृथ्वीकायादि में सचित्त पृथ्वीकयादि के ३६ भेद और मिश्र पृथ्वीकायादि में मिश्र पृथ्वीकायादि के ३६ भेद होते है ।
ऐसे कुल १४४ भेद होते है, तीन चतुर्भंगी के ४३२ भेद होते है । कीसी भी भेद में साधु को भिक्षा लेना न कल्पे । यदि वह “छर्दित दोष" युक्त भिक्षा ग्रहण करे तो - १. आज्ञाभंग, २. अनवस्था, ३. मिथ्यात्व, ४. संयम विराधना, ५. आत्म विराधना, ६. प्रवचन विराधना आदि दोष लगते है । इसी प्रकार औद्देशिकादि दोषयुक्त भिक्षा लेने में भी मिथ्यात्व