Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 236
________________ पिंड़नियुक्ति - -६५४ २३५ साधु को अचित्त या अशुद्ध लगता हो वो । ( प्रश्न ) सामान्य अनिषष्ट और देनेवाले से भाव अपरिणत में क्या फर्क है ? अनिसृष्ट में सभी मालिक वहाँ मौजूद मे हो तब वो सामान्य अनिसृष्ट कहलाता है और देनेवाले भाव अपरिणत में मालिक वहाँ हाजिर हो । इतना फर्क । भाव से अपरिणत भिक्षा लेना न कल्पे । क्योंकि उसमें कलह आदि दोष की सँभावना है । दाता के विषय वाला भाव अपरिणत वो भाई या स्वामी सम्बन्धी है, जब कि ग्रहण करनेवाला विषयवाला भाव अपरिणत साधु सम्बन्धी है । [६५५-६६८] लिप्त का अर्थ है - जिस अशनादि से हाथ, पात्र आदि खरडाना, जैसे कि दहीं, दूध, दाल आदि द्रव्यो लिप्त कहलाते है । श्री जिनेश्वर परमात्मा के शासन में ऐसे लिप्त द्रव्य लेना नहीं कल्पता, क्योंकि लिप्त हाथ, भाजन आदि धोने में पश्चात्कर्म लगते तथा रस की आसक्ति का भी संभव होता है । लिप्त हाथ, लिप्त भाजन, शेष बचे हुए द्रव्य के आठ भेद होते है । अलिप्त द्रव्य लेने में दोष नहीं लगता, अपवाद से लिप्त द्रव्य लेना कल्पता है । हे भगवंत् ! आपने कहा कि लिप्त ऐसे दहीं आदि ग्रहण करने में पश्चात्कर्म आदि दोष होते है, इसीलिए साधु को लेपयुक्त द्रव्य नहीं लेने चाहिए, तो फिर साधु को भोजन ही नहीं करना चाहिए; जिससे पश्चात्कर्म दोष लगे ही नहीं । भिक्षा के लिए आने जाने का कष्ट भी न होवे, रस की आसक्ति आदि दोष न लगे, नित्य तप करे, फिर आहार करने का प्रयोजन ही क्या हे महानुभव ! जीवनपर्यन्त उपवास करने से चिरकाल तक होनेवाले तप, संयम, नियम, वैयावच्च आदि की हानि होती है, इसीलिए जीवन पर्यन्त का तप नहीं हो शकता । यदि जीवनपर्यन्त का तप न करे तो फिर उत्कृष्ट छह मास के उपवास तो बताए है ना ? छह महिने के उपवास करे और पारणा में लेप रहित ग्रहण करे, फिर छह मास के उपवास करे ? यों छह-छह मास के उपवास करने की शक्ति होवे तो खुशी से करे, इसमें निषेध नहीं । यदि छह मास का तप न हो शके तो एक एक दिन कम करते यावत् उपवास के पारणे में आयंबील करे । ऐसा करने से लेपरहित द्रव्य ग्रहण हो शकते है और निर्वाह भी होता है । उपवास भी न कर शके तो नित्य आयंबिल करे । यदि ऐसी भी शक्ति न होवे और उस काल में तथा भविष्य में आवश्यक ऐसे पडिलेहण, वैयावच्चादि संयम योगो में हानि होती हो तो वह ऐसा भी तप कर शकता है । लेकिन वर्तमान काल में आखरी संघयण है, इसीलिए ऐसी शारीरिकशक्ति नहीं है कि यह तप भी कर शके । इसीलिए तीर्थंकर और गणधर भगवंतोने ऐसा उपदेश नहीं दीया है । आप कहते है कि आखरी संघयण होने से ऐसा तप निरंतर नहीं हो शकता, तो फिर महाराष्ट्र, कौशल आदि देश में जन्मे हुए लोग हमेशा खट्टापानी, चावल आदि खाते है और जीवनपर्यन्त कार्य आदि कर शकते है, तो फिर जिसके लिए मोक्ष ही एक प्रयोजन है ऐसे साधु क्यों निर्वाह नहीं कर शकते ? साधु तो आयंबिल आदि से अच्छी प्रकार निर्वाह कर शकते है । साधु को उपधि, शय्या और आहार यह तीनो शीत होने से निरंतर आयंबिल करने से आहार का पाचन नहीं होता, इस से अजिर्ण आदि दोष उत्पन्न होते है, जब कि गृहस्थ तो खट्टापानी और चावल खाते हुए भी उपधि- शय्या शीतकाल में भी उष्ण होने से आहार का पाचन हो जाता है । साधु के लिए तो आहार, उपधि, शय्या उष्णकाल में भी शीत होते है । उपधि का कांप साल में एक बार नीकले, शय्या को अग्नि का ताप न लगने से एवं आहारशीत होने से हौजरी में यथायोग्य पाचन नहीं होता, इसीलिए उसे अजीर्ण, ग्लानता आदि

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