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महानिशीथ-७/-/१३८४
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के स्वाद के पोषण के लिए भोजन करे तो आयंबिल और बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम होने के बावजूद अष्टमी, चतुर्दशी, ज्ञानपंचमी, पर्युषणा धोकर पानी न पीए तो चऊत्थ, पात्रा धोए हुए पानी परठवे तो दुवालस, पात्रा, मात्रक, तरपणी या किसी भी तरह के भाजन उपकरण को गीलापन दूर करके सूखाकर चीकनाइवाले या चिकनाइ रहित बिना साफ किए स्थापित करके रखे तो चोथभक्त, पात्रबाँध की गठान न छोड़े, उसकी पडिलेहणा न करे तो चोथ भक्त । भोजन मंडली में हाथ धोए, उसके पानी में पाँव का संघट्टा करके चले, भोजन करने की जगह साफ करके दंडपुच्छणक से काजा न ले तो नीवी, भोजन मांडली के स्थान में जगह साफ करके काजा इकट्ठा करके इरिया न प्रतिक्रमे तो निवी ।
उस प्रकार इरियावही, कहकर बाकी रहे दिन का यानि तिविहार या चोविहार का प्रत्याख्यान न करे तो आयंबिल गुरु के समक्ष वो पच्चक्खाण न करे तो पुरिमुड्ड, अविधि से पच्चक्खाण करे तो आयंबिल, पच्चक्खाण करने के बाद चैत्य और साधु को न वांदे तो पुरिमड़, कुशील को वंदन करे तो अवंदनीय, उसके बाद के संयम में बाहर ठंडिल भूमि पर जाने के लिए पानी लेने के लिए जाए, वडीनिती करके वापस आए तो उस वक्त कुछ न्युन तीसरी पोरिसी पूर्ण बने । उसमें भी इरियावही प्रतिक्रम करके विधि से गमनागमन की आलोचना करके पात्रा, मात्रक आदि भाजन और उपकरण व्यवस्थित करे तब तीसरी पोरिसी अच्छी तरह से पूर्ण बने । इस प्रकार तीसरी पोरिसी बीत जाने के बाद हे गौतम! जो भिक्षु उपधि और स्थंडिल विधिवत् गुरु के सन्मुख संदिसाऊँ - ऐसे आज्ञा माँगकर पानी पीने के भी पच्चक्खाण लेकर काल वक्त तक स्वाध्याय न करे उसे छठ प्रायश्चित् समजना ।
इस प्रकार कालवेला आ पहुँचे तब गुरु की उपधि और स्थंडिल, वंदन, प्रतिक्रमण, सज्झाय, मंडली आदि वसति की प्रत्युपेक्षणा करके समाधिपूर्वक चित्त के विक्षेप बिना संयमित होकर अपनी उपधि और स्थंडिल की प्रत्युपेक्षणा करके गोचर चरित और काल प्रतिक्रम करके गोचरचर्या घोषणा करके उसके बाद दैवसिक अतिचार से विशद्धि निमित्त काऊंसग करे। इस हरएक में क्रमिक उपस्थापन पुरिमुड्ड एकासन और उपस्थापना प्रायश्चित् जानना । इसके अनुसार काऊसग करके मुहपति की प्रतिलेखना करके विधिवत् गुरु महाराज को कृतिकर्म वंदन करके सूर्योदय से लेकर किसी भी स्थान में जैसे कि बैठते, जाते, चलते, घूमते, जल्दबाझी करते, पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, हरियाली, तृण, बीज, पुष्प, फूल, कुपल-अंकुर, प्रवाल, पात्र, दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रियवाले जीव का संघट्ट, परितापन, किलामणा, उपद्रव आदि किए हो और तीन गुप्ति, चार कषाय, पाँच महाव्रत, छ जीवनीकाय साँत तरह के पानी और आहारादिक की एषणा, आँठ प्रवचन माता, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्ति, दश तरह का श्रमणधर्म, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की जिस खंड़ से विराधना हुए हो उसकी नींदा, गर्दा, आलोचना, प्रायश्चित् करके एकाग्र मानस से सूत्र, अर्थ और तदुभय को काफी भानेवाला उसके अर्थ सोचनेवाला, प्रतिक्रमण न करे तो उपस्थापन, ऐसा करते-करते सूरज का अस्त हुआ । चैत्य को वंदन किए बिना प्रतिक्रमण करे तो चोथ भक्त ।
प्रतिक्रमण करने के बाद रात को विधि सहित बिलकूल कम वक्त नहीं ऐसे प्रथम पहोर में स्वाध्याय न करे तो दुवालस, प्रथम पोरिसी पूर्ण होने से पहले, संथारो करने की विधि से आज्ञा माँगे तो छठ, संदिसाए बिना संथारा करके सो जाए तो चऊत्थ, प्रत्युपेक्षणा किए बिना