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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
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कल्प,
का सेवन करने से, सूयगडांग सूत्र के दोनो श्रुतस्कंध मिलकर कुल मिलाके तेईस अध्ययन है । इन तेबीस अध्ययन के लिए अश्रद्धा आदि करने से, श्री ऋषभदेव आदि चोबीस तीर्थंकर परमात्मा की विराधना से या १० भवनपति, ८ व्यंतर, ५ ज्योतिष्क और एक तरह से वैमानिक ऐसे २४ देव के लिए अश्रद्धादि करने से, पाँच महाव्रत के रक्षण के लिए हर एक व्रतविषयक पाँच-पाँच भावना दी गई है उन २५ भावना का पलन न करने से, दशा, व्यवहार उन तीनों अलग आगम है । उसमें दशाश्रुतस्कंध के १०, कल्प के ६ और व्यवहार के १०, कुल मिलाके २६ अध्ययन होते है । उसके उद्देश, समुदेश, अनुज्ञा के लिए वंदनकायोत्सर्ग आदि क्रिया न करने या अविधि से करने से, छह तरीके से व्रत, पाँच तरीके से इन्द्रिय जय आदि- २७ तरह के साधु के गुण का पालन न करने से, आचार प्रकल्प यानि आचार और प्रकल्प - निसीह सूत्र उसमें आचार के २५ अध्ययन और निसीह के उद्घाति
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अनुद्घातिम आरोपणा वो तीन विषय मिलकर २८ के लिए अश्रद्धा आदि करने से, निमित्त शास्त्र आदि पाप के कारण समान २९ तरह के श्रुत के लिए प्रवृत्ति करने से, मोहनीय कर्म बाँध के तीस कारण का सेवन करने से, सिद्ध के इकत्तीस गुण के लिए अश्रद्धा - अबहुमान आदि करने से, मन, वचन, काया के प्रशस्त योग के संग्रह के लिए निमित्त भूत 'आलोचना' आदि योगसंग्रह के बत्तीस भेद उसमें से जिस अतिचार का सेवन किया गया हो
[२७ - २९] तैतीस प्रकार की आशातना जो यहाँ सूत्र में ही बताइ गई है उसके द्वारा लगे अतिचार, अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी का अवर्णवाद से अबहुमान करने से, श्रावक-श्राविका की निंदा आदि से, देव-देवी के लिए कुछ भी बोलने से, आलोकपरलोक के लिए असत्प्ररूपणा से, केवली प्रणित श्रुत या चारित्र धर्म की आशातना के द्वारा, उर्ध्व, अधो, तिर्च्छा रूप चौदह राजलोक की विपरीत प्ररूपणा आदि करने से, सभी स्थावर, विकलेन्द्रिय संसारी आदि जीव के लिए अश्रद्धा विपरीत प्ररूपणा आदि करने से, काल, श्रुत, श्रुतदेवता के लिए अश्रद्धादि करने से, वाचनाचार्य के लिए अबहुमानादि से, ऐसी १९ तरह की आशातना एवं
अब फिर श्रुत के लिए बतानेवाले १४ पद में से की हुई आशातना वो इस प्रकार -सूत्र का क्रम ध्यान में न रखना, या आड़ा-टेढ़ा बोलना, अलग-अलग पाठ मीलाकर मूल शास्त्र का क्रम बदलना, अक्षर कम करना - बढ़ाना, पद कम करना, योग्य विनय न करना, उदात्त - अनुदात्त आदि दोष न सँभालना, योग्यता रहित को श्रुत पढ़ाना, कलुषित चित्त से पढ़ाना, बिना समय के स्वाध्याय करना, स्वाध्याय के समय स्वाध्याय न करना, असज्झाय के समय स्वाध्याय करना, सज्झाय के समय स्वाध्याय न करना । इस तरह से एक से तैतीस दोष या अतिचार का सेवन हुआ हो वो मेरा सब कुछ दुष्कृत मिथ्या हो ।
[३०] ऋषभदेव से महावीर स्वामी तक चोबीस तीर्थंकर परमात्मा को मेरा नमस्कार । [३१] यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ( जिन आगम या श्रुत) सज्जन को हितकारक, श्रेष्ठ, अद्वितीय, परिपूर्ण, न्याययुक्त, सर्वथाशुद्ध, शल्य को काट डालनेवाला सिद्धि के मार्ग समान, मोक्ष के मुक्तात्माओ के स्थान के और सकल कर्मक्षय समान, निर्वाण के मार्ग समान है । सत्य है, पूजायुक्त है, नाश रहित यानि शाश्वत, सर्व दुःख सर्वथा क्षीण हुए है जहाँ वैसा यानि कि मोक्ष के मार्ग समान है ।
इस प्रकार से निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित जीव, सिद्धि प्राप्त करते है । बोध पाते है । भवोपग्राही कर्म से मुक्त होते है । सभी प्रकार से निर्वाण पाते है । सारे दुःखों का विनाश