________________
१२४
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
है । वो इस प्रकार-)
श्वासोच्छ्वास लेने से, साँस छोडने से, खाँसी आने से, छींक आने से, बगासा आने से, डकार आने से, वा छूट होने से, वाय आने से, पित्त से, मूर्छा आने से, शरीर का सूक्ष्म स्फूरण होने से, शरीर में कफ आदि का सूक्ष्म संचार होने से, स्थिर रखी दृष्टि सूक्ष्म तरीके से फरकने से, एवं अग्नि स्पर्श, देह छेदन आदि अन्य कारण से जो काय प्रवृत्ति होती है उसके द्वारा मेरे कायोत्सर्ग का भंग न हो या विराधित न हो...जब तक "नमो अरिहंताणं" यानि - अरिहंत परमात्मा को नमस्कार करके मैं कायोत्सर्ग पारूं नहीं (पूरा न करूँ) तब तक स्थान से स्थिर होकर "मौन" वाणी के द्वारा स्थिर होकर 'ध्यान' - मन के द्वारा स्थिर होकर मेरी काया को वोसिराता हूँ । (मेरे बहिरात्मा या देहभाव का त्याग करता हूँ ।
[४०-४६] 'लोगस्स उज्जोअगरे' - इन साँत गाथा का अर्थ पूर्व सूत्र ३ से ९ अनुसार समजना ।
[४७] लोक में रहे सर्व अर्हत् चैत्य का यानि अर्हत् प्रतिमा का आलम्बन लेकर या उसका आराधन करने के द्वारा मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।
बढ़ती हुई श्रद्धा, बुद्धि, धृति या स्थिरता, धारणा या स्मृति और तत्त्व चिन्तन पूर्वक वंदन की - पूजन की - सत्कार की - सम्मान की - बोधिलाभ की और मोक्ष की भावना या आशय से मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होता हूँ ।
[४८] अर्ध पुष्करवरद्वीप, घातकी खंड़ और जम्बूद्वीप में उन ढाई द्वीप में आए हुए भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में श्रुतधर्म की आदि करनेवाले को यानि तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूँ ।
[४९] अज्ञान समान अंधेरे के समूह को नष्ट करनेवाले, देव और नरेन्द्र के समूह से पूजनीय और मोहनीय कर्म के सर्व बँधन को तोड़ देनेवाले ऐसे मर्यादावंत यानि आगम युक्त श्रुतधर्म को मैं वंदन करता हूँ।
[५०] जन्म, बुढ़ापा, मरण और शोक समान सांसारिक दुःख को नष्ट करनेवाले, ज्यादा कल्याण और विशाल सुख देनेवाले, देव-दानव और राजा के समूह से पूजनीय श्रुतधर्म का सार जानने के बाद कौन धर्म आराधना में प्रमाद कर शकता है ?
[५१] हे मानव ! सिद्ध ऐसे जिन्मत को मैं पुनः नमस्कार करता हूँ कि जो देवनागकुमार - सुवर्णकुमार - किन्नर के समूह से सच्चे भाव से पूजनीय है । जिसमें तीन लोक के मानव सुर और असुरादिक स्वरूप के सहारे के समान संसार का वर्णन किया गया है ऐसे संयम पोषक और ज्ञान समृद्ध दर्शन के द्वारा प्रवृत्त होनेवाला शाश्वत धर्म की वृद्धि हो और विजय की परम्परा के द्वारा चारित्र धर्म की भी हमेशा वृद्धि हो ।
[५२] श्रुत-भगवान आराधना निमित्त से मैं कायोत्सर्ग करता हूँ । “वंदण वत्तियाए" इन पद का अर्थ पूर्व सूत्र-४७ में बताया है ।
[५३] सिद्धिपद को पाए हुए, सर्वज्ञ, फिर से जन्म न लेना पड़े उस तरह से संसार का पार पाए हुए, परम्पर सिद्ध हुए और लोक के अग्र हिस्से को पाए हुए यानि सिद्ध शीला पर बिराजमान ऐसे सर्व सिद्ध भगवंत को सदा नमस्कार हो ।
[५४] जो देवो के भी देव है, जिनको देव अंजलिपूर्वक नमस्कार करते है । और जो इन्द्र से भी पूजे गए है ऐसे श्री महावीर प्रभु को मैं सिर झुकाकर वंदन करता हूँ।
[५५] जिनेश्वर में उत्तम ऐसे श्री महावीर प्रभु को (सर्व सामर्थ्य से) किया गया एक