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पिंड़नियुक्ति - ५३१
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तुम जैसी थी ?" छोटी उम्र हो तो कहे कि, 'मेरी पुत्री या पुत्र की पुत्री तुम जैसी थी ।' इत्यादि बोलकर आहार पाए । इसलिए सम्बन्धी, पूर्वसंस्तव नाम का दोष लगे । सम्बन्धी पश्चातसंस्तव - पीछे से रिश्ता हुआ हो तो सास-ससुर आदि के रिश्ते से पहचान बनाना । 'मेरी सांस, पत्नी तुम जैसे थे' आदि बोले उसे सम्बन्धी पश्चात् संस्तव कहते है ।
वचन पूर्वसंस्तव - दातार के गुण आदि जो पता चला हो, उसकी प्रशंसा करे । भिक्षा लेने से पहले सच्चे या झुठे गुण की प्रशंसा आदि करना । जैसे कि, 'अहो ! तुम दानेश्वरी हो उसकी केवल बात ही सुनी थी लेकिन आज तुम्हें प्रत्यक्ष देखा है । तुम जैसे बड़े आदि दुसरों के नहीं सुने । तुम भाग्यशाली हो कि तुम्हारे गुण की प्रशंसा चारो दिशा में पृथ्वी के अन्त तक फैली है । आदि बोले । वो वचन पूर्व संस्तव कहलाता है । वचन - पश्चात् संस्तव भिक्षा लेने के बाद दातार की प्रशंसा करना । भिक्षा लेने के बाद बोले कि, आज तुम्हें देखने से मेरे नैन निर्मल हुए । गुणवान को देखने से चक्षु निर्मल बने उसमें क्या ताज्जुब । तुम्हारे गुण सच्चे ही है, तुम्हें देखने से पहले तुम्हारे दान आदि गुण सुने थे, तब मन में शक हुआ था कि, 'यह बात सच होगी या झूठ ? लेकिन आज तुम्हें देखने से वो शक दूर हो गया है । आदि प्रशंसा करे उसे वचन पश्चात् संस्तव कहते है ।
ऐसे संस्तव दोषवाली भिक्षा लेने से दुसरे कईं प्रकार के दोष होते है ।
[ ५३२ - ५३७] जप, होम, बलि या अक्षतादि की पूजा करने से साध्य होनेवाली या जिसके अधिष्ठाता प्रज्ञाप्ति आदि स्त्री देवता हो वो विद्या । एवं जप होम आदि के बिना साध्य होता हो या जिसका अधिष्ठाता पुरुष देवता हो वो मंत्र ।
भिक्षा पाने के लिए विद्या या मंत्र का उपयोग किया जाए तो वो पिंड़ विद्यापिंड़ या मंत्रपिंड़ कहलाता है । ऐसा पिंड़ साधु को लेना न कल्पे ।
गंधसमृद्ध नाम के नगर में बौद्ध साधु का भक्त धनदेव रहता था । वो बौद्ध साधु की भक्ति करता था । उसके वहाँ यदि जैन साधु आए हो तो कुछ भी न देता । एक दिन तरूण साधु आपस में इकट्ठे होकर बातें कर रहे थे, वहाँ एक साधु बोले कि, 'इस धनदेव संता को कुछ भी नहीं देता । हममें से कोई ऐसा है कि जो धनदेव के पास घी, गुड़ आदि भिक्षा दिला शके ? एक साधु बोल पड़ा कि, मुझे आज्ञा दो, मैं धनराज से दान दिलवाऊँ । साधु ने कहा कि, अच्छा । तुम्हें आज्ञा दी । वो साधु धनदेव के घर के पास गया और उसके घर पर विद्या का प्रयोग किया । इसलिए धनदेव ने कहा कि, 'क्या दूँ ?' साधु ने कहा कि, 'घी, गुड़, वस्त्र आदि दो । धनदेव ने काफी घी, गुड़, कपड़े आदि दिए । साधु भिक्षादि लेकर गए फिर उस साधुने विद्या संहर ली । इसलिए धनदेव को पता चला । घी, गुड़ आदि देखकर उसे लगा कि, 'कोई मेरे घी, गुड़ आदि की चोरी करके चला गया है । और खुद विलाप करने लगा । लोगों ने पूछा कि, 'क्यों रो रहे हो ? क्या हुआ ?' धनदेव ने कहा कि, 'मेरा घी आदि किसी ने चोरी कर लिया है ।'
लोगों ने कहा कि, तुम्हारे हाथ से ही साधु को चाहे उतना दिया है और अब चोरी के लिए क्यों चिल्लाते हो ?' यह सुनकर धनदेव चूप हो गया । विद्या संहरकर वो स्वभावस्थ हुआ । अब यदि उस साधु का द्वेषी हो तो दुसरी विद्या के द्वारा साधु को स्थंभित कर दे या मार डाले, या फिर लोगों को कहे कि, विद्यादि से दुसरों का द्रोह करके जिन्दा है, इसलिए मायावी है, धूर्त है आदि मन चाहा बोले । इसलिए साधु की निंदा हो, राजकुल में ले जाए