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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
तो वध, बंधन आदि कदर्थना हो । इसलिए साधु को विद्या का प्रयोग भिक्षा में लेना न कल्पे।
[५३८-५५४] चूर्णपिंड - अदृश्य होना या वशीकरण करना, आँख में लगाने का अंजन या माथे पर तिलक करने आदि की सामग्री चूर्ण कहलाती है । भिक्षा पाने के लिए इस प्रकार के चूर्ण का उपयोग करना, चूर्णपिंड़ कहलाता है ।
योगपिंड़ - सौभाग्य और दौर्भाग्य को करनेवाले पानी के साथ घिसकर पीया जाए ऐसे चंदन आदि, धूप देनेवाले, द्रव्य विशेष, एवं आकाशगमन, जलस्थंभन आदि करे ऐसे पाँव में लगाने का लेप आदि औषधि योग कहलाती है । भिक्षा पाने के लिए इस प्रकार के योग का उपयोग, योगपिंड़ कहलाता है ।
चूर्णपिंड़ पर चाणक्य ने पहेचाने हुए दो अदृश्य साधु का दृष्टांत- पादलेपन समान योगपिंड़ पर श्री समितिसूरि का दृष्टांत, मूलकर्मपिंड़ पर अक्षतयोनि एवं क्षतयोनि करने पर दो स्त्री का दृष्टांत, विवाह विषयक मूलकर्मपिंड़ पर दो स्त्री का दृष्टांत और गर्भाधान एवं गर्भपाड़न रूप मूलकर्म पिंड़ पर राज की दो रानी का दृष्टांत । ऊपर के अनुसार विद्या, मंत्र, चूर्ण, योग के उत्सर्ग, अपवाद को बतानेवाले आगम का अनुसरण करनेवाले साधु यदि गण, संघ या शासन आदि के कार्य के लिए उपयोग करे तो यह विद्यामंत्रादि दुष्ट नहीं है । ऐसे कार्य के लिए उपयोग कर शके । उसमें शासन प्रभावना रही है । केवल भिक्षा पाने के लिए उपयोग करे तो ऐसा पिंड़ साधु के लिए अकल्प्य है ।
मूलकमपिंड़ - मंगल को करनेवाली लोक में जानीमानी औषधि आदि से स्त्री को सौभाग्यादि के लिए स्नान, करवाना, धूप आदि करना, एवं गर्भाधान, गर्भस्थंभन, गर्भपात करवाना, रक्षाबंधन करना, विवाह-लग्न आदि करवाना या तुड़वाना आदि, क्षतयोनि करवाना यानि उस प्रकार का औषध कुमारिका आदि को दे कि जिससे योनि में से रूधिर बहता जाए। अक्षतयोनि यानि औषध आदि के प्रयोग से बहता रूधिर बँध हो । यह सब आहारादि के लिए करे तो मूलकर्मपिंड़ कहलाता है ।।
ब्रह्मदीप में देवशर्मा नाम का कुलपति ४९९ तापस के साथ रहता है । अपनी महिमा बताने के लिए संगति आदि पर्व के दिन देवशर्मा अपने परिवार के साथ पाँव में लेप लगाकर कृष्णा नदी में उतरकर अचलपुर गाँव में आता था । लोग को ऐसा अतिशय देखकर ताज्जुब हुए, इसलिए भोजन आदि अच्छी प्रकार से देकर तापस का अच्छी सत्कार करते थे । इसलिए लोग तापस की प्रशंसा करते थे और जैन की निंदा करते थे, एवं श्रावको को कहने लगे कि, 'तुम्हारे गुरु में ऐसी शक्ति है क्या ? श्रावक ने आचार्य श्री समितिसूरिजी से बात की। आचार्य महाराज समज गए कि, वो पाँव के तलवे में लेप लगाकर नदी पार करते है 'लेकिन तप के बल पर नहीं उतरता ।' आचार्य महाराज ने श्रावको को कहा कि, 'उनका कपट खुला करने के लिए तुम्हें उसको उसके सभी तापस के साथ तुम्हारे यहाँ खाने के लिए बुलाना और खाने से पहले उसके पाँव इस प्रकार धोना कि लेप का जरा सा भी हिस्सा न रहे । फिर क्या किया जाए वो मैं सँभाल लूँगा ।'
श्रावक तापस के पास गए । पहले तो उनकी काफी प्रशंसा की, फिर परिवार के साथ भोजन करने का न्यौता दिया । तापस भोजन के लिए आए, इसलिए श्रावक तापस के पाँव धोने लगे । कुलपति - मुखिया तापस ने मना किया । क्योंकि पाँव साफ करने से लेप नीकल जाए ।' श्रावक ने कहा कि पाँव धोए बिना भोजन करवाए तो अविनय होता है, इसलिए