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ओघनियुक्ति-५८७
१५९ के लिए देव का उपयोग करे । इस प्रकार सचित्त अचित्त - मिश्र । नौ प्रकार के पिंड़ की हकीकत हुई ।
[५८८-६४४] लेप पिंड - पृथ्वीकाय से मानव तक इन नौ के संयोग से उत्पन्न हुआ लेप पिंड़ होता है, किस प्रकार ? गाड़ी के अक्ष में पृथ्वी की रज लगी हो इसलिए . पृथ्वीकाय। गाडु नदी पार करते समय पानी लगा हो तो अपकाय । गाड़ा का लोहा घिसते ही अग्नि उत्पन्न हो तो तेऊकाय । जहाँ अग्नि हो वहाँ वायुकाय है इसलिए वायुकाय, अक्ष लकड़े का हो तो वनस्पतिकाय | मली में संपतिम जीव पड़े हो तो बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चऊरिन्द्रिय और स्स्सी घिसते है इसलिए पंचेन्द्रिय । इस लेप का ग्रहण पात्रादि रंगने के लिए किया जाता है । लेप यतनापूर्वक ग्रहण करना । गाडी के पास जाकर उसके मालिक को पूछकर लेप ग्रहण करना । शय्यातर की गाड़ी का लेप ग्रहण करने में शय्यातर पिंड़ का दोष नहीं लगता । लेप की अन्त तक परीक्षा करनी चाहिए | मीठा हो तो लेप ग्रहण करना चाहिए। लेप लेने जाते ही गुरु महाराज को वंदन करके जाना, प्रथम नए पात्रा को लेप करना फिर पुराने पात्रा को लेप करना पुराने पात्रा का लेप नीकल गया हो तो वो गुरु महाराज को बताकर फिर लेप करे, पूछने का कारण यह है कि किसी नए साधु सूत्र-अर्थ ग्रहण करने के लिए आनेवाले हो तो पात्रा का लेप करने का निषेध कर शके या तो कोई मायावी हो तो उसकी वारणा कर शके । सुबह में लेप लगाकर पात्रा को सुखने दे, शक्ति हो तो उपवास करके लेप करे । उपवास की शक्ति न हो तो लेप किया गया पात्र दुसरों को सँभालने के लिए सौंपकर खाने के लिए जाए । दुसरों को न सौंपे और ऐसे ही रखकर जाए तो संपातिम जीव की विराधना होती है । लेप की गठरी बनाकर पातरा का रंग करे, फिर ऊँगली के द्वारा नरम बनाए । लेप दो, तीन या पाँच बार लगाना चाहिए । पात्रा का लेप विभूषा के लिए न करे लेकिन संयम के लिए करे । बचा हुआ लेप रूई आदि के साथ रखने में मसलकर परठवे लेप दो प्रकार के है एक युक्ति लेप, दुसरा खंजन लेप । काफी चीजे मिलाकर बनता युक्ति लेप निषिध्ध है, क्योंकि उसमें संनिधि करनी पड़ती है । शर्दी में पहले और चौथे प्रहर में लेप लगाए हुए पात्रा गर्मी में न सूखाना । गर्मी में पहला अर्ध प्रहर और अन्तिम अर्ध प्रहर में लेप लगाए हुए पात्रा गर्मी में न सूखाना । यह काल स्निग्ध होने से लेप का विनाश हो इसलिए न सूखाना | पात्रा काफी गर्मी में सूखाने से लेप जल्द सूख जाता है | पात्र तूटा हुआ हो तो मुद्रिकाबंध से एवं नावाबँध से सीना, लेकिन स्तेनबंध से मत सीना । स्तेन बंध में दोनों ओर जोड़ न दिखे उस प्रकार पात्र को भीतर से सीने से पात्र निर्बल होता है ।
[६४५-६४८] पिंड़, निकाय, समूह, संपिंडन, पिंड़ना, समवाय, समवसरण, निचय, उपचय, चम, जुम्म और राशी एकार्थक नाम है इस प्रकार द्रव्यपिंड़ बताया अब भावपिंड़ बताते है । भावपिंड - दो प्रकार से प्रशस्त और अप्रशस्त । अप्रशस्त भावपिंड़ - दो प्रकार, साँत प्रकार से, आँठ प्रकार से और चार प्रकार से । दो प्रकार से - राग से और द्वेष से । साँत प्रकार से इहलोक भय, परलोक भय, आदानभय, अकस्मातभय आजीविका भय, मरणभय, अपयशभय । आँठ प्रकार से - आँठ मद के स्थान से जाति-कुल, बल, रूप, तप, सत्ता, श्रुत फायदे से एवं आँठ कर्म के उदय से । चार प्रकार से - क्रोध, मान, माया और लोभ से पिंड़ ग्रहण करना वो अप्रशस्तपिंड़ । अप्रशस्तपिंड़ से आत्मा कर्म करके बँधता है । प्रशस्त भावपिंड़ - तीन प्रकार से । ज्ञान, विषय, दर्शन विषय, चारित्र विषय, यानि जिस पिंड़ से