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ओघनियुक्ति-९१५
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ग्रहण करके लाया गया आहार । उसके अलावा ग्रहण किया गया आहार अविधि ग्रहण कहलाता है ।
[९१६-९२३] अविधि भोजन - १. काकभुक्त, २. शृगालभुक्त, ३. द्रावितरस, ४. परामृष्ट, काकभुक्त - यानि जिस प्रकार कौआ विष्टा आदि में से वाल, चने आदि नीकालकर खाता है, उसी प्रकार पात्र में से अच्छी अच्छी या कुछ-कुछ चीजे नीकालकर खाना | या खाते-खाते गिराए, एवं मुँह में नीवाला रखकर आस-पास देखे । शृंगालभुक्त - लोमड़ी की प्रकार अलग-अलग जगह पर ले जाकर खाए । द्रावितरस - यानि चावल ओसामण इकट्ठे किए हो उसमें पानी या प्रवाही डालकर एक रस समान पी जाए । परामृष्ट - यानि फर्क, उलट, सूलट, नीचे का ऊपर और ऊपर का नीचे करके उपयोग करे । विधिभोजन प्रथम उत्कृष्ट द्रव्य, फिर अनुत्कृष्ट द्रव्य फिर समीकृतरस खाए । वो विधि भोजन अविधि से ग्रहण किया हुआ और अविधि से खाया हुआ दुसरों को दे या ले तो आचार्य देनेवाले को और लेनेवाले को दोनों को गुस्सा करे । एवं एक कल्याणक प्रायश्चित् दे । धीर पुरुषने इस प्रकार संयमवृद्धि के लिए ग्रास एषणा बताई, निम्रन्थ ने इस प्रकार विधि पालन करते हुए कई भव, संचित कर्म खपते है ।
[९२४-९४२] परिष्ठापना दो प्रकार से - जात, कमजात । जात - यानि प्राणातिपाद आदि दोष से युक्त या आधा कर्मादि दोषवाला या लालच से लिया गया या अभियोगकृत, वशीकरण कृत, मंत्र, चूर्ण आदि मिश्रकृत और विषमिश्रित आहार भी अशुद्ध होने से परठवना करने में जात प्रकार के है । कमजात - यानि शुद्ध आहार । जातपारिठापनिका - मूल, गुण से करके अशुद्धि जीव हत्या आदि दोषवाला आहार, एकान्त जगह में, जहाँ लोगों का आनाजाना न हो, ऐसी समान भूमि पर जहाँ प्राधुर्णक, आदि सुख से देख शके, वहाँ एक ढ़ग करके परठवे । मूर्छा या लोभ से ग्रहण किया गया या उत्तरगुण से करके अशुद्ध आधाकर्मी आदि दोषवाला हो, तो उस आहार को दो ढ़ग करके परठवे, अभियोग आदि या मंत्र-तंत्रवाला हो तो ऐसे आहार को भस्म में एक दुसरे में मिलाकर परठवे । तीन बार वोसिरे वोसिरे वोसिरे कहे । अजातापारिष्ठापनिका - शुद्ध आहार बचा हो उसकी पारिष्ठापनिका अजात कहलाती है, वो आहार साधुओ को पता चले उस प्रकार से तीन ढ़ग करके परठवे । तीन बार वोसिर वोसिर बोले । इस प्रकार विधिवत् परठवे तो साधु कर्म से रखे जाते है । शुद्ध और विधिवत् लाया गया आहार कैसे बचे ? जिस क्षेत्र में रहे हो वहाँ आचार्य, ग्लान आदि को प्रायोग्य द्रव्य दुर्लभ होने से बाहर दुसरे गाँव में गोचरी के लिए गए हुए सभी साधु को प्रायोग्य द्रव्य मिल जाने से वो ग्रहण करे या गृहस्थ ज्यादा वहोरावे तो बचे । इसलिए शुद्ध ऐसा भी आहार परठवे। ऐसे शुद्ध आहार के तीन ढ़ग करे, जिसमें जिसको जरुर है वो साधु समजकर ग्रहण कर शके।
[९४३-९४९] आचार्य के प्रायोग्य ग्रहण करने से गुरु को सूत्र और अर्थ स्थिर होता है, मनोज्ञ आहार से सूत्र और अर्थ का सुख से चिन्तवन् कर शकते है । इससे आचार्य का विनय होता है । गुरु की पूजा होती है । नवदीक्षित को आचार्य के प्रति मान होता है । प्रायोग्य देनेवाले गृहस्थ को श्रद्धा की वृद्धि होती है । आचार्य की बुद्धि और बल फैलते है इससे शिष्य को काफी निर्जरा होती है । इस कारण से प्रायोग्य ग्रहण करने से आचार्य की अनुकंपा भक्ति होती है । आचार्य की अनुकंपा से गच्छ की अनुकंपा होती है । गच्छ की