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पिंड़नियुक्ति-८३
भावपिंड़ कहते है । यहाँ हम प्रशस्त भावपिंड़ और शुद्ध अचित्त द्रव्यपिंड़ से कार्य है, क्योंकि मोक्ष के अर्थी जीव को आँठ प्रकार की कर्म समाने बेड़ियाँ तोड़ने के लिए प्रशस्त भावपिंड़ जरुरी है । उसमें अचित्त द्रव्यपिंड़ सहायक बनता है, इसलिए वो ज्यादा जरुरी है ।
[८४-१००] मुमुक्षु के जीवन में प्राप्त करने के लायक केवल मोक्ष ही है, उस मोक्ष के कारण सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र है और उस मोक्ष के कारण समान दर्शन, ज्ञान और चारित्र के कारण शुद्ध आहार है । आहार बिना चारित्र शरीर टिक नहीं शकता । उद्गम आदि दोषवाला आहार चारित्र को नष्ट करनेवाला है । शुद्ध आहार मोक्ष के कारण समान है, जैसे तंतु (सूती वस्त्र के कारण है और तंतु के कारण रूई है, यानि रूई में से सूत बनता है और सूत्र से वस्त्र बुने जाते है, उसी प्रकार शुद्ध आहार से दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धि हो और दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धि से जीव का मोक्ष हो । इसके लिए साधु को उद्गम उत्पादन आदि दोष रहित आहार ग्रहण करना चाहिए । [१०१-१०८] उसमें उद्गम के सोलह दोष है । वो इस प्रकार आधाकर्म- साधु के लिए हो जो आहार आदि बनाया गया हो वो । उद्देशिक साधु आदि सभी भिक्षाचर को उद्देशकर आहार आदि किया गया हो वो । पूतिकर्म शुद्ध आहार के साथ अशुद्ध आहार मिलाया गया हो । मिश्र शुरू से गृहस्थ और साधु दोनों के लिए तैयार किया गया हो वो । स्थापना - साधु के लिए आहार आदि रहने दे वो । प्राभृतिका साधु को वहोराने का फायदा हो उस आशय शादी आदि अवसर लेना वो । प्रादुष्करण साधु को वहोराने के लिए अंधेरा दूर करने के लिए खिड़की, दरवाजा खोलना या बिजली, दिया आदि से उजाला करना वो । क्रीत साधु को वहोराने के लिए बिक्री में खरीदना । प्रामित्य साधु को वहोराने के लिए उधार लाना ।
परिवर्तित - साधु को वहोराने के लिए चीज को उलट-सुलट करना वो । अभ्याहृत् साधु को हराने के लिए सामने ले जाए वो । उद्भिन्न साधु को वहोराने के लिए मिट्टी आदि सील लगाया हो तो उसे तोड़ देना । मालाहृत् कोटड़ी या मजले पर से लाकर देना वो । आछेद्य पुत्र, नौकर आदि के पास से जबरदस्ती लूटकर देना वो । अनिसृष्ट- अनेक मालिक की वस्तु दुसरों की परवानगी बिना एक पुरुष दे वो अध्यपूरक अपने लिए रसोई की शुरूआत करने के बाद साधु के लिए उसमें ज्यादा डाला हुआ देना ।
यहाँ निर्युक्ति में आनेवाला जितशत्रु राजा का दृष्टांत, कुछ विशेष बातें, एषणा का अर्थ एवं एषणा के प्रकार दर्शन आदि शुद्धि और उसके लिए आहार शुद्धि की जरुरत आदि बाते इसके पहले कही गई है । इसलिए उसको यहाँ दोहराया नहीं है ।
[१०९] आधाकर्म के द्वार आधाकर्म के एकार्थिक नाम, ऐसे कर्म कब होंगे ? आधाकर्म का स्वरूप और परपक्ष, स्वपक्ष एवं स्वपक्ष में अतिचार आदि प्रकार ।
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[११०-११६] आधाकर्म के एकार्थक नाम आधाकर्म, अधःकर्म आत्मघ्न और आत्मकर्म । आधाकर्म यानि साधु को मैं दूंगा ऐसा मन में संकल्प रखकर उनके लिए छ काय जीव की विराधना जिसमें होती है ऐसा आहार बनाने की किया । अधः कर्म यानि आधाकर्म दोषवाला आहार ग्रहण करनेवाले साधु को संयम से नीचे ले जाए, शुभ लेश्या से नीचे गिराए, या नरकगति में ले जाए इसलिए अधःकर्म । आत्मघ्न यानि साधु के चारित्र समान आत्मा को नष्ट करनेवाला । आत्मकर्म यानि अशुभकर्म का बँध हो । आधाकर्म ग्रहण
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