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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
भी उन्हें पसंद नहीं है । यदि उन्हें पसन्द होती हो लो वरना कही ओर चले जाव । मुनि को आधाकर्मी आदि के लिए शक न होने से पातरा नीकाला । यशोमति ने काफी भक्तिपूर्वक पातरा भर दिया और दुसरा घी, गुड़ आदि भाव से वहोराया ।
साधु आहार लेकर विशुद्ध अध्यवसायपूर्वक गाँव के बाहर नीकले और एक पेड़ के नीचे गए, वहाँ विधिवत् इरियावहि आदि करके, फिर कुछ स्वाध्याय किया और सोचने लगे कि, 'आज गोचरी में खीर आदि उत्तम द्रव्य मिले है तो किसी साधु आकर मुझे लाभ दे तो मैं संसार सागर को पार कर दूँ । क्योंकि साधु हंमेशा स्वाध्याय में रक्त होते है और संसार स्वरूप को यथावस्थित जैसे है ऐसा हमेशा सोचते है, इसलिए वो दुःख समान संसार से विरक्त होकर मोक्ष की साधना में एक चित्त रहते है, आचार्यादि की शक्ति अनुसार वैयावच्च में उत्त रहते है और फिर देश के लब्धिवाले उपदेश देकर काफी उपकार करते है और अच्छी प्रकार से संयम पालन करनेवाले है । ऐसे महात्मा को अच्छा आहार ज्ञान आदि में सहायक बने, यह मेरा आहार उन्हें ज्ञानादिक में सहायक बने तो मुझे बड़ा फायदा हो शके । जब ये मेरा शरीर असार प्रायः और फिझूल है, मुझे तो जैसे-तैसे आहार से भी गुजारा हो शकता है ।' यह भावनापूर्वक मूर्च्छा रहित वो आहार खाने से विशुद्ध अध्यवसाय होते ही क्षपक श्रेणी लेकर और खाए रहने से केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इस प्रकार से भाव से शुद्ध आहार की गवेषणा करने से आधाकर्मी आहार आ जाए तो खाने के बावजुद भी वो आधाकर्मी के कर्मबंध से नहीं बँधता, क्योंकि वो भगवंत की आज्ञा का पालन करता है ।
शंका - जिस अशुद्ध आहारादि को साधु ने खुद ने नहीं बनाया, या नहीं बनवाया और फिर बनानेवाले की अनुमोदना नहीं की उस आहार को ग्रहण करने में क्या दोष ?
तुम्हारी बात सही है । जो कि खुद वो आहार आदि नहीं करता, दुसरों से भी नहीं करवाता तो भी 'यह आहारादि साधु के लिए बनाया है ।' ऐसा समजने के बावजूद भी यदि वो आधाकर्मी आहार ग्रहण करता है, तो देनेवाले गृहस्थ और दुसरे साधुओ को ऐसा लगे कि, 'आधाकर्मी आहारादि देने में और लेने में कोई दोष नही है, यदि दोष होता तो यह साधु जानने के बावजूद भी क्यों ग्रहण करे ?' ऐसा होने से आधाकर्मी आहार में लम्बे अरसे तक छह जीव निकाय का घात चलता रहता है । जो साधु आधाकर्मी आहार का निषेध करे या 'साधु को आधाकर्मी आहार न कल्पे ।' और आधाकर्मी आहार ग्रहण न करे तो ऊपर के अनुसार दोष उन साधु को नहीं लगता । लेकिन आधाकर्मी आहार मालूम होने के बावजूद जो वो आहार ले तो यकीनन उनको अनुमोदना का दोष लगता है । निषेध न करने से अनुमति आ जाती है । और फिर आधाकर्मी आहार खाने का शौख लग जाए, तो ऐसा आहार न मिले तो खुद भी बनाने में लग जाए ऐसा भी हो, इसलिए साधु आधाकर्मी आहारादि नहीं लेना चाहिए । जो साधु आधाकर्मी आहार ले और उसका प्रायश्चित् न करे, तो वो साधु श्री जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा का भंजक होने से उस साधु का लोच करना, करवाना, विहार करना आदि सब व्यर्थ - निरर्थक है । जैसे कबूतर अपने पंख तोड़ता है और चारों ओर घूमता है । लेकिन उसको धर्म के लिए नहीं होता । ऐसे आधाकर्मी आहार लेनेवाले का लोच, विहार आदि धर्म के लिए नहीं होते ।
[२४१ - २७२] औद्देशिक दोष दो प्रकार से है । १. ओघ से और २. विभाग से, ओघ से यानि सामान्य और विभाग से यानि अलग-अलग । ओघ औद्देशिक का बँयान आगे