Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 205
________________ २०४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद अपने परिवार में कोई दीक्षा ले तो अच्छा, वो ही सही उपकार है । इस भावना से आचार्य भगवंत की आज्ञा लेकर अपने गाँव में आए । वहाँ किसी ने पूछा कि, 'देवशर्मा परिवार से कोई है क्या ?' उस पुरुष ने कहा कि, उनके घर के सभी मर गए है, केवल सम्मति नाम की विधवा बेटी कुछ स्थान पर रहती हैं । साधु बहन के घर आए । भाई मुनि को आए हुए देखकर बहन को काफी आनन्द हुआ और ठहरने की जगह दी । फिर साधु के लिए पकाने के लिए जा रही थी वहाँ मुनि ने निषेध किया कि, 'हमारे लिए किया गया हमें न कल्पे ।' सम्मति के पास पैसे न होने के कारण से शिवदेव शेठ की दुकान से दिन-ब-दिन दुगुना देने के कुबूल करते दो पल तैल लाई और साधु को वहोराया । भाई मुनि ने उसे निर्दोष समजकर ग्रहण किया । साधु के पास धर्म सुनने का आदि के कारण से दुसरों का काम करने के लिए नहीं जा शकी । दुसरे दिन भाई मुनि ने विहार किया । इसलिए उन्हें बिदा करने गई और घर आते ही उनके वियोग के दुःख से दुसरे दिन भी पानी भरना आदि दुसरों का काम न हो शका । इसलिए चार पल्ली जितना तेल चड़ा । तीसरे दिन आँठ पल्ली हुई । उतना एक दिन में काम करके पा न शकी । रोज खाने के निर्वाह भी मजदूरी करने पर था । इस प्रकार दिन ब दिन तेल का प्रमाण बढ़ता चला । कुछ घड़े जितना तेल का देवादार हो गया । शिवदेव शेठ ने कहा कि, “या तो हमारा चड़ाया हुआ तेल दो या हमारे घर दासी बनकर रहो' सम्मति तेल न देशकी इसलिए शेठ के घर दासी बनकर रही । शेठ का सारा काम करती है और दुःख में दिन गजारती है । सम्मत मनि कछ वर्ष के बाद वापस उस गाँव में आ पहँचे । उन्होंने घर में बहन को नहीं देखा, इसलिए वापस चले गए और रास्ते में बहन को देखा, इसलिए मुनि ने पूछा, बहन ने रोते हुए सारी बात बताई । यह सुनकर मुनि को खेद हुआ । मेरे निमित्त से उधार लाई हुई चीज मैंने प्रमाद से ली, जिससे बहन को दाशी बनने का समय आया । लोकोत्तर प्रामित्य दो प्रकार से । कुछ समय के बाद वापस करने की शर्त से वस्त्र पात्र आदि साधु से लेना । कुछ समय के बाद वस्त्र आदि वापस देने का तय करके वस्त्र आदि लिया हो तो वो वस्त्र आदि वापस करने के समय में ही जीर्ण हो जाए, फट जाए या खो जाए या कोई ले जाए इसलिए उसे वापस न करने से तकरार हो, इसलिए इस प्रकार वस्त्र आदि मत लेना । उसके जैसा दुसरा देने का तय करके लिया हो, फिर उस साधु को उस वस्त्र से भी अच्छा वस्त्र देने से उस साधु को पसन्द न आए । जैसा था ऐसा ही माँगे और इसलिए तकरार हो । इसलिए यह वस्त्रादि नहीं लेना चाहिए । वस्त्रादि की कमी हो तो साधु वापस करने की शर्त से ले या दे नहीं, लेकिन ऐसे ही ले या दे । गुरु की सेवा आदि में आलसी साधु को वैयावच्च करने के लिए वस्त्रादि देने का तय कर शके । उस समय वो वस्त्रादि खुद सीधा न दे, लेकिन आचार्य को दे । फिर आचार्य आदि बुजुर्ग वो साधु को दे । जिससे किसी दिन तकरार की संभावना न रहे । [३५१-३५६] साधु के लिए चीज की अदल-बदल करके देना परावर्तित । परावर्तित दो प्रकार से । लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक में एक चीज देकर ऐसी ही चीज दुसरों से लेना । या एक चीज देकर उसके बदले में दुसरी चीज लेना । लोकोत्तर में भी ऊपर के अनुसार वो चीज देकर वो चीज लेनी या चीज देकर उसके बदले में दुसरी चीज लेना । लौकिक तद्रव्य - यानि खराबी घी आदि देकर दुसरों के वहाँ से साधु के निमित्त से

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