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पिंडनियुक्ति-४७३
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से कहा कि, 'बोलो ! इस घोड़ी के पेट में वछेग है या वछेरी ?' साधु ने कहा कि, “उसके पेट में पाँच लक्षणवाला वछेरा है ।' मुखीने सोचा कि, यदि यह सच होगा तो मेरी स्त्री ने कहा हुआ सब सच मानूँगा, वरना इस दुराचारी दोनों को मार डालूँगा । मुखी ने घोड़ी का पेट चिर डाला और देखा तो मुनि के कहने के अनुसार पाँच लक्षण वाला घोड़ा था, यह देखते ही उसका गुस्सा शान्त हो गया । इस प्रकार निमित्त कहने में कईं दोष रहे है । इसलिए निमित्त कहकर पिंड लेना न कल्पे ।
४७४-४८० आजीविका पाँच प्रकार से होती है । जाति-सम्बन्धी, कल सम्बन्धी, गण सम्बन्धी, कर्म सम्बन्धी, शील्प सम्बन्धी । इन पाँच प्रकारो में साधु इस प्रकार बोले कि जिससे गृहस्थ समजे कि, 'यह हमारी जाति का है, या तो साफ बताए कि 'मैं ब्राह्मण आदि हूँ ।' इस प्रकार खुद को ऐसा बताने के लिए भिक्षा लेना, वो आजीविका दोषवाली मानी जाती है । जाति-ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि या मातृपक्ष की माँ के रिश्तेदार जाति कहलाते है । कुल - उग्रकुल, राजन्यकुल, भोगकुल आदि या पितापक्ष का - पिता के रिश्तेदार सम्बन्धी कुल कहलाता है । गण - मल्ल आदि का समूह । कर्म - खेती आदि का कार्य या अप्रीति का उद्भव करनेवाला । शिल्प - तुणना, सीना, बेलना आदि या प्रीति को उदभव करनेवाला। कोई ऐसा कहता है कि, 'गुरु के बिना उपदेश करया - शीखा हो वो कर्म और गुरु ने उपदेश करके - कहा-बताया - शीखाया वो शील्प ।।
किसी साधु ने भिक्षा के लिए किसी ब्राह्मण के घर में प्रवेश किया, तब ब्राह्मण के पुत्र को होम आदि क्रिया अच्छी प्रकार से करते हुए देखकर अपनी जाति दिखाने के लिए ब्राह्मणने कहा कि, 'तुम्हारा बेटा होम आदि क्रिया अच्छी प्रकार से करता है !' या फिर ऐसा कहे कि, 'गुरुकुल में अच्छी प्रकारे से रहा हो ऐसा लगता है ।' यह सुनकर ब्राह्मणने कहा कि, 'तुम होम आदि क्रिया अच्छी प्रकार से जानते हो इसलिए यकीनन तुम ब्राह्मण जाति के लगते हो । यदि ब्राह्मण नहीं होते तो यह सब अच्छी प्रकार से कैसे पता चलता ?' साधु चूप रहे । इस प्रकार साधुने कहकर अपनी जाति बताई वो बोलने की कला से दिखाई । या फिर साधु साफ कहते है, "मैं ब्राह्मण हूँ ।' यदि वो ब्राह्मण भद्रिक होता तो यह हमारी जातिक है' ऐसा समजकर अच्छा और ज्यादा आहार दे । यदि वो ब्राह्मण द्वेषी हो तो यह पापात्मा भ्रष्ट हुआ, उसने ब्राह्मणपन का त्याग किया है ।' ऐसा सोचकर अपने घर से नीकाल दे ।
इस प्रकार कुल, गण, कर्म, शिल्प में दोष समज लेना । इस प्रकार भिक्षा लेना वो आजीविकापिंड़ दोषवाली मानी जाती है । साधु को ऐसा पिंड़ लेना न कल्पे ।
[४८१-४९३] आहारादि के लिए साधु, श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि, श्वान आदि के भक्त के आगे - यानि जो जिसका भक्त हो उसके आगे उसकी प्रशंसा करके खुद आहारादि पाए तो उसे वनीपक पिंड़ कहते है । श्रमण के पाँच भेद है । निर्ग्रन्थ, बौद्ध, तापस, पख्रिाजक और गौशाला के मत का अनुसरण करनेवाला । कृपण से दरिद्र, अंध, लूंठे, लगड़े, बिमार, जुंगित आदि समजना । श्वान से कूते, कौऐ, गाय, यक्ष की प्रतिमा आदि समजना। जो जिसके भक्त हो उनके आगे खुद उसकी प्रशंसा करे । कोई साधु भिक्षा के लिए गए हो वहाँ भिक्षा पाने के लिए निर्ग्रन्थ को आश्रित करके श्रावक के आगे बोल कि, 'हे उत्तम श्रावक ! तुम्हारे यह गुरु तो काफी ज्ञानवाले है, शुद्ध क्रिया और अनुष्ठान पालन करने में तत्पर है, मोक्ष के अभिलाषी है ।