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पिंडनियुक्ति-४६२
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कुल में भिक्षा के लिए जाने से अनुकूल गोचरी प्राप्त नहीं होने से दत्तमुनि निराश हो गए । उनका भाव जानकर आचार्य भगवंत दत्त मुनि को किसी धनवान के घर भिक्षा के लिए ले गए । उस घर में शेठ के बच्चे को व्यंतरी ने झपट लिया था, बच्चा हमेशा रोया करता था। इसलिए आचार्यने उस बच्चे के सामने देखकर ताली बजाते हुए कहा कि, 'हे वत्स ! रो मत।' आचार्य के प्रभाव से वो व्यंतरी चली गई । इसलिए बच्चा चूप हो गया । यह देखते ही गृहनायक खुश हो गया और भिक्षा में लड्डू आदि वहोराया | दत्तमुनि खुश हो गए, इसलिए आचार्य ने उसे उपाश्रय भेज दिया और खुद अंतप्रांत भिक्षा वहोरकर उपाश्रय में आए।
प्रतिक्रमण के समय आचार्य ने दत्तमुनि को कहा कि, 'धात्रीपिंड़ और चिकित्सापिंड़ की आलोचना करो ।' दत्तमुनि ने कहा कि, 'मैं तो तुम्हारे साथ भिक्षा के लिए आया था। धात्रीपिंड़ आदि का परिभोग किस प्रकार लगा ।' आचार्यने कहा कि, 'छोटे बच्चे से खेला इसलिए क्रीड़न धात्री पिंडदोष और चपटी बजाने से व्यंतरी को भगाया इसलिए चिकित्सापिंड़ दोष, इसलिए उन दोष की आलोचना कर लो । आचार्य का कहा सुनकर दत्तमुनि के मन में द्वेष आया और सोचने लगा कि, 'यह आचार्य कैसे है ? खुद भाव से मास कल्प का भी आचरण नहीं करते और फिर हमेशा ऐसा मनोज्ञ आहार लेते है । जब कि मैने एक भी दिन ऐसा आहार लिया तो उसमें मुझे आलोचना करने के लिए कहते है ।' गुस्सा होकर आलोचना किए बिना उपाश्रय के बाहर चला गया । .
एक देव आचार्यश्री के गुण से उनके प्रति काफी बहुमानवाला हुआ था । उस देवने दत्त मुनि का इस प्रकार का आचरण और दुष्ट भाव जानकर उनके प्रति कोपायमान हुआ और शिक्षा करने के लिए वसति में गहरा अंधेरा विकुा फिर पवन की आँधी और बारिस शुरू हुई । दत्तमुनि तो भयभीत हो गए । कुछ दिखे नहीं । बारिस में भीगने लगा, पवन से शरीर काँपने लगा । इसलिए चिल्लाने लगा और आचार्य को कहने लगा कि, 'भगवन् ! मैं कहाँ जाऊँ ? कुछ भी नहीं दिखता ।' क्षीरोदधि जल समान निर्मल हृदयवाले आचार्यने कहा कि, 'वत्स ! उपाश्रय के भीतर आ जाओ ।' दतमुनि ने कहा कि, 'भगवन् ! कुछ भी नहीं दिखता, कैसे भीतर आऊँ ? अंधेरा होने से दरवाजा भी नहीं दिख रहा । अनुकंपा से आचार्य ने अपनी ऊँगली धुंकवाली करके ऊपर किया, तो उसका दीए की ज्योत जैसा उजाला फैल गया । दुरात्मा दत्तमुनि सोचने लगा कि, 'अहो ! यह तो परिग्रह में अग्नि, दीप भी पास में रखते है ? आचार्य के प्रति दत्त ने ऐसा भाव किया. तब देव ने उसकी निर्भत्सना करके कहा कि, 'दुष्ट अधम् । ऐसे सर्व गुण रत्नाकर आचार्य भगवंत के प्रति ऐसा दुष्ट सोचते हो ? तुम्हारी प्रसन्नता के लिए कितना किया, फिर भी ऐसा दुष्ट चिन्तवन करते हो ? ऐसा कहकर गोचरी आदि की हकीकत बताई और कहा कि, 'यह जो उजाला है वो दीप का नहीं है, लेकिन तुम पर अनुकंपा आ जाने से अपनी ऊँगली यूँकवाली करके, उसके प्रभाव से वो उजालेवाली हई है | श्री दत्तमुनि को अपनी गलती का उपकार हुआ, पछतावा हुआ, तुरन्त आचार्य के पाँव में गिरकर माँफी माँगी । आलोचना की । इस प्रकार साधु को धात्रीपिंड़ लेना न कल्पे ।
[४६३-४६९] दूतीपन दो प्रकार से होता है । जिस गाँव में ठहरे हो उसी गाँव में और दुसरे गाँव में । गृहस्थ का संदेशा साधु ले जाए या लाए और उसके द्वारा भिक्षा ले तो दूतीपिंड़ कहलाता है । संदेशा दो प्रकार से समजना - प्रकट प्रकार से बताए और गुप्त प्रकार