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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
खुद ही अदल-बदल कर दे, जिससे पीछे से कलह आदि न हो । इस प्रकार कुछ वस्त्र देकर उसके बदले पात्रादि की अदल-बद करे वो अन्य द्रव्य लोकोत्तर परावर्तित कहते है ।
[३५७-३७५] साधु को वहोराने के लिए सामने से लाया गया आहार आदि अभ्याहृत दोषवाला कहलाता है । साधु ठहरे हो उस गाँव में से या दुसरे गाँव से गृहस्थ साधु को देने के लिए भिक्षादि लाए उसमें कई दोष रहे है । लाने का प्रकट, गुप्त आदि कई प्रकार से होता है । मुख्यतया दो भेद - १. अनाचीर्ण और २. आचीर्ण । अनाचीर्ण यानि साधु को लेना न कल्पे उस प्रकार से सामने लाया हुआ ।
अनाचीर्ण के आँठ प्रकार - साधु को पता न चले उस प्रकार से लाया हुआ | साधु को पता चले उस प्रकार से लाया हआ | साधु को पता न चले उस प्रकार साधु रहे है उस गाँव से लाया हुआ । साधु को पता न चले उस प्रकार साधु ठहरे है । उसके अलावा दुसरे गाँव से लाया हुआ । साधु को पता न चले उस प्रकार साधु जिस देश में ठहरे है उसके अलावा दुसरे देश के दुसरे गाँव से लाया हुआ । (परगाँव से किस प्रकार लाए - १. पानी में उतरकर, २. पानी में तैरकर, ३. तरापे में बैठकर, ४. नाँव आदि में बैठकर लाया हुआ। जलमार्ग से लाने में अप्काय आदि जीव की विराधना हो, या उतरकर आने में पानी की गहराई का खयाल न रहे तो डूब जाए, या तो जलचर जीव पकड़ ले या मगरमच्छ पानी में खींच ले, दलदल में फँस जाए आदि । इसलिए शायद मर जाए । जमीं मार्ग से पैदल चलकर, गाड़ी में बैठकर, घोड़े, खच्चर, ऊँट, बैल, गधे आदि बैठकर लाया हुआ । जमी के मार्ग से आने में पाँव में काँटे लग जाए, कूत्ते आदि प्राणी काट ले, चलने के योग से बुखार आ जाए, चोर आदि लूँट ले, वनस्पति आदि की विराधना हो) साधु को पता चले उस प्रकार से दुसरे गाँव से लाया हुआ । साधु को पता चले उस प्रकार उसी गाँव से लाया हुआ ।
साधु गाँव में भिक्षा के लिए गए हो तब घर बन्ध होने से वहोराने का लाभ न मिला हो । रसोई न हुई हो इसलिए लाभ न मिला हो । रसोई पका रहे हो इसलिए लाभ न मिला हो । स्वजन आदि भोजन करते हो तो लाभ न मिला हो । साधु के जाने के बाद किसी अच्छी चीज आ गई हो इसलिए लाभ लेने का मन करे । श्राविका निद्रा में हो या किसी काम में हो आदि कारण से श्राविका आहार लेकर उपाश्रय में आए और बताए कि, इस कारण से मुझे लाभ नहीं मिला, इसलिए अब मुझे लाभ दो ।' ऐसा साधु को पता चले उस प्रकार से गाँव में से लाया हुआ कहते है । इस प्रकार बाहर गाँव से लाभ लेने की इच्छा से आकर विनती करे । उस साधु को पता चले उस प्रकार से दुसरे गाँव से लाया हुआ ।
यदि पीछे से अभ्याहृत का पता चले तो आहार लिया न हो तो परठवे । खा लिया हो तो कोई दोष नहीं है । जानने के बाद ले तो दोष के भागीदार बने ।
गीतार्थ साधु भगवंत ने जो लेने का आचरण किया हो उसे आचीर्ण कहते है । आचीर्ण दो प्रकार से । क्षेत्र की अपेक्षा से और घर की अपेक्षा से । क्षेत्र अपेक्षा से तीन भेद, उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । क्षेत्र से उत्कृष्ट सौ हाथ तक । क्षेत्र से जघन्य, बैठे-बैठे या खड़े होकर हाथ से ऊपर रहा बरतन लेकर, ऊपर करके या उल्टा-पुल्टा कर दे तो बाकी का मध्यम । इसमें साधु का उपयोग रह शकता हो तो कल्पे ।
उत्कृष्ट सौ हाथ क्षेत्र की संभावना - जहाँ कईं लोग खाने के लिए बैठे हो, बीच में लम्बी छींड़ी हो, धर्मशाला या वाड़ी हो वहाँ भोजन की चीजे, सौ हाथ प्रमाण दूर है । और