Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 196
________________ पिंडनियुक्ति-११७-२४० १९५ है । मायावी हो तो 'यह ग्रहण करो । तुम्हारे लिए कुछ नहीं बनाया । ऐसा कहकर घर में दुसरों के सामने देखे या, हँसे । मुँह पर के भाव से पता चले कि 'यह आधाकर्मी है ।' 'यह किसके लिए बनाया है ?' ऐसा पूछने से देनेवाला क्रोधित हो और बोले कि, 'तुमको क्या? तो वहाँ आहार ग्रहण करने में शक मत करना । उपयोग रखने के बावजूद भी किस प्रकार आधाकर्म का ग्रहण हो ? जो कोई श्रावकश्राविका काफी भक्तिवाले और गहरे आचाखाले हो वो आधाकर्मी आहार बनाकर वहोराने में काफी आदर न दिखाए, पूछने के बावजूद सच न बोले या चीज कम हो तो अशुद्ध कैसे होगी? इसलिए साधु ने पूछा न हो । इस कारण से वो आहार आधाकर्मी होने के बावजुद, शुद्ध समजकर ग्रहण करने से साधु ठग जाए । गृहस्थ के छल से आधाकर्मी ग्रहण करने के बावजूद भी निर्दोषता कैसे ? गाथा में ‘फासुयभोई' का अर्थ यहाँ 'सर्व दोष रहित शुद्ध आहार खानेवाला करना है ।' साधु का आचार है कि ग्लान आदि प्रयोजन के समय निर्दोष आहार की गवेषणा करना । निर्दोष न मिले तो कम से कम दोषवाली चीज ले, वो न मिले तो श्रावक आदि को सूचना देकर दोषवाली ले । श्रावक की कमी से शास्त्र की विधिवत् ग्रहण करे । लेकिन अप्रासुक यानि सचित्त चीज को तो कभी भी न ले । आधाकर्मी आहार खाने के परीणामवाला साधु शुद्ध आहार लेने के बावजूद, कर्मबंध से बँधता है, जब कि शुद्ध आहार की गवेषणा करनेवाले को शायद आधाकर्मी आहार आ जाए और वो अशुद्ध आहार खाने के बावजूद वो कर्मभंध से नहीं बँधता क्योंकि उसमें आधाकर्मी आहार लेने की भावना नहीं है । शुद्ध में अशुद्ध बुद्धि से खानेवाले साधु कर्म से बँधते है । · शुद्ध की गवेषणा करने से अशुद्ध आ जाए तो भी भाव शुद्धि से साधु को निर्जरा होती है, उस पर अब दृष्टांत- आचार्य भगवंत श्री रत्नाकर सूरीश्वरजी महाराज ५०० शिष्य से परिवरीत शास्त्र की विधिवत् विहार करते करते पोतनपुर नाम के नगर में आए । ५०० शिष्य में एक प्रियंकर नाम के साधु मासखमण के पारणे के मासखमण का तप करनेवाले थे। पारणे के दिन उस साधु ने सोचा कि, मेरा पारणा जानकर किसी ने आधाकर्मी आहार किया हो, इसलिए पास के गाँव में गोचरी जाऊँ, कि जिससे शुद्ध आहार मिले । ऐसा सोचकर उस गाँव में गोचरी के लिए न जाते हुए पास के एक गाँव में गए । उस गाँव में यशोमती नाम की विचक्षण श्राविका रहती थी । लोगों के मुख से तपस्वी पारणा का दिन उसको पता चला। इसलिए उसने सोचा कि, शायद वो तपस्वी महात्मा पारणा के लिए आए तो मुझे फायदा हो शके, उस आशय से काफी भक्तिपूर्वक खीर आदि उत्तम रसोई तैयार की। खीर आदि उत्तम द्रव्य देखकर साधु की आधाकर्मी का शक न हो, इसलिए पत्ते के पड़िये में बच्चों के लिए थोड़ी थोरी खीर रख दी और बच्चों को शीखाया कि, यदि इस प्रकार के साधु यहाँ आएंगे तो बोलो कि 'हे' मा ! हमें इतनी सारी खीर क्यों दी ? भाग्य से वो तपस्वी साधु घुमते-घुमते सबसे पहले यशोमती श्राविका के घर आ पहुँचे । यशोमति भीतर से काफी खुश हुए, लेकिन साधु को शक न हो इसलिए बाहर से खास किसी सम्मान न दिया, बच्चों को शीखाने के अनुसार बोलने लगे, इसलिए यशोमती न बच्चों पर गुस्सा किया । और बाहर से अपमान और गुस्सा होकर साधु को कहा कि, 'यह बच्चे पागल हो गए है । खीर

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