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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
उस घर का आहार न कल्पे, लेकिन पाँचवे दिन से उस घर का शुद्ध आहार कल्पे, फिर उसमें पूति की परम्परा नहीं चलती, लेकिन यदि पूति दोषवाला भाजन उस दिन या दुसरे दिन गृहस्थ ने अपने उपयोग के लिए तीन बार साफ करने के बाद उसमें शुद्ध आहार पकाया हो तो तुरन्त कल्पे ।
साधु के पात्र में शुद्ध आहार के साथ आधाकर्मी आहार आ गया हो तो वो आहार नीकालकर तीन बार पानी से साफ करने के बाद दुसरा आहार लेना कल्पे ।
__ गोचरी के लिए गए साधु को घर में जमण आदि होने की निशानी दिखे तब मन में पूतिकर्म की शंका हो, चालाकी से गृहस्थ को या उसकी स्त्री आदि को पूछे कि, 'जमण हुए - साधु के लिए आहार आदि करने के कितने दिन हुए ?' या तो उनकी बात से पता कर ले । तीन दिन से ज्यादा दिन हुए हो तो पूति नहीं होती । इस प्रकार मालूम करते पूतिदोष का परिहार करके शुद्ध आहार की गवेषणा करे ।
[२९५-३०१] मिश्रदोष तीन प्रकार से - १. किसी भी भिक्षाचर के लिए, २. धोखेबाज के लिए, ३. साधु के लिए । अपने लिए और यावत् साधु आदि के लिए पहले से इकट्ठा पकाया हो तो उसे मिश्रदोष कहते है । मिश्रदोषवाला आहार एक हजार घर में घुमते-घुमते जाए तो भी वो शुद्ध नहीं होता । मिश्रदोषवाला आहार पात्र में आ गया हो तो वो आहार ऊँगली या भस्म से दूर करने के बाद वो पात्र तीन बार धोने के बाद गर्मी में सूखाने के बाद उस पात्र में दुसरा आहार लाना कल्पे ।
किसी भी यानि सारे भिक्षुक के लिए किया हुआ पता करने का तरीका - 'किसी स्त्री किसी साधु को भिक्षा देने के लिए जाए वहाँ घर का मालिक या दुसरे किसी उसका निषेध करे कि इसमें से मत देना । क्योंकि यह रसोइ सबके लिए नहीं बनाई, इसलिए यह दुसरी रसोइ जो सबको देने के लिए बनाई है उसमें से दो ।' पकाना शुरू करते हो वहीं कोई कहे कि, 'इतना पकाने से पूरा नही होगा, ज्यादा पकाओ कि जिससे सभी भिक्षुक को दे शके ।' इस अनुसार सुना जाए तो पता चल शके कि, 'यह रसोई यावदर्थिक, सारे भिक्षुक के लिए मिश्र दोषवाली है । ऐसी आहार साधु को लेना न कल्पे ।
पाखंडी मिश्र - गृहनायक पकानेवाले को बोले कि, 'पाखंडी को देने के लिए साथ में ज्यादा पकाना' वो पाखंड़ी मिश्रदोषवाला हुआ वो साधु को लेना न कल्पे, क्योंकि पाखंडी में साधु भी आ जाते है । श्रमणमिश्र अलग नहीं बताया क्योंकि पाखंडी कहने से श्रमण भी
आ जाते है । निर्ग्रन्थ मिश्र - कोइ ऐसा बोले कि, “निर्ग्रन्थ साधु को देने के लिए साथ में ज्यादा पकाना' वो निर्ग्रन्थ मिश्र कहलाता है । वो भिक्षा भी साधु को न कल्पे ।
[३०२-३१०] गृहस्थने अपने लिए आहार बनाया हो उसमें से साधु को देने के लिए रख दे तो वो स्थापना दोषवाला आहार कहलाता है । स्थापना के छह प्रकार, स्वस्थान स्थापना, परस्थान स्थापना, परम्पर स्थापना, अनन्तर स्थापना, चिरकाल स्थापना और इत्वरकाल स्थापना । स्वस्थान स्थापना - आहार आदि जहाँ तैयार किया हो वहीं चूल्हे पर साधु को देने के लिए रख दे । परस्थान स्थापना - जहाँ आहार पकाया हो वहाँ से लेकर दुसरे स्थान पर छाजली, शीका आदि जगह पर साधु को देने के लिए रख दे । स्थापना रखने के द्रव्य दो प्रकार के होते है । कुछ विकारी और कुछ अविकारी । जिन द्रव्य का फर्क कर शके वो विकारी । दूध, ईख आदि दूध में से दही, छाछ, मक्खन, घी आदि होते है । ईख में से रस,