Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 185
________________ १८४ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद उपयोग किया जाता है । मानव का उपयोग सचित्त मानव का उपयोग दीक्षा देने में एवं मार्ग आदि पूछने के लिए । अचित्त मानव की खोपरी वेश परिवर्तन आदि करने के काम में आए, एवं घिसकर उपद्रव शान्त करने के लिए । देव का उपयोग तपस्वी या आचार्य अपनी मृत्यु आदि पूछने के लिए, एवं शुभाशुभ पूछने के लिए या संघ सम्बन्धी किसी कार्य के लिए करे । [६८-८३] भावपिंड़ दो प्रकार के है । १. प्रशस्त, २ अप्रशस्त । प्रशस्त एक प्रकार से दश प्रकार तक है । प्रशस्त भावपिंड़ एक प्रकार से यानि संयम । दो प्रकार यानि ज्ञान और चारित्र । तीन प्रकार यानि ज्ञान, दर्शन और चारित्र । चार प्रकार यानि ज्ञान, दर्सन, चारित्र और तप । पाँच प्रकार यानि १. प्राणातिपात विरमण, २. मृषावाद विस्मण, ३. अदत्तादान विरमण, ४. मैथुन विरमण और ५. परिग्रह विरमण । छ प्रकार से ऊपर के अनुसार पाँच और छह रात्रि भोजन विरमण । साँत प्रकार से यानि साँत पिंड़ेषणा, साँत पाणैषणा, साँत अवग्रह प्रतिमा । इसमें साँत पिंड़ेषणा, वो संसृष्ट, असंसृष्ट, उद्धृत, अल्पलेप, अवगृहीत, प्रगृहीत, संसृष्ट- हाथ और पात्र खरड़ित, असंसृष्ट- हाथ और पात्र न खरड़ित, उद्धृत कटोरे में नीकाला गया, अल्पलेप पके हुए चने आदि । अवगृहीत भोजन के लिए लिया गया, प्रगहित - हाथ में लिया हुआ नीवाला, उज्झितधर्म फेंकने योग्य । - - साँत अवग्रह प्रतिमा यानि - वसति सम्बन्धी ग्रहण करने में अलग-अलग अभिग्रह रखना । जैसे कि . इस प्रकार का उपाश्रय ग्रहण करूँगा । इस प्रकार पहले सोचकर उस प्रकार का उपाश्रय याचकर उतरे वो । मैं दुसरों के लिए वसति माँगूगा और दुसरों ने ग्रहण की हुई वसति में रहूँगा नहीं । मैं दुसरों के लिए अवग्रह नहीं माँगूंगा लेकिन दुसरों के अवग्रह में रहूँगा । मैं मेरा अवग्रह माँगूंगा लेकिन दुसरों के लिए नहीं माँगूंगा. मैं जिनके पास अवग्रह माँगूंगा उसका ही संस्तारक ग्रहण करूँगा, वरना खडे खडे या उत्कटुक आसन पर रहूँगा । ऊपर की छठ्ठी के अनुसार ही विशेष ईतना की शिलादि जिस प्रकार संस्तारक होगा उसका उसी के अनुसार उपयोग करूँगा, दुसरा नहीं, आँठ प्रकार यानि आँठ प्रवचन माता । पाँच समिति और तीन गुप्ति । नौ प्रकार से नौ ब्रह्मचर्य की वाड । दस प्रकार से क्षमा आदि दश प्रकार का यतिधर्म । इस दश प्रकार का प्रशस्त भावपिंड़ श्री तीर्थंकर भगवंत ने बताया है । - - - - अप्रशस्त भावपिंड़ एक तरीका यानि असंयम (विरत की कमी रूप) दो प्रकार से यानि अज्ञान और अविरति । तीन प्रकार से यानि मिथ्यात्त्व, अज्ञान और अविरति । चार प्रकार से यानि - क्रोध, मान, माया और लालच । पाँच प्रकार से यानि – प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तदान, मैथुन और परिग्रह । छ प्रकार से यानि पृथ्वीकाय, अपकाय, तेऊकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय की विराधना साँत प्रकार से याि कर्म के बँध के जवाबदार अध्यवसाय । आँठ प्रकार से यानि - आँठ कर्म के बँध के कारणभूत अध्यवसाय । नौ प्रकार से यानि ब्रह्मचर्य की नौ गुप्ति का पालन न करना । दश प्रकार से यानि - क्षमा आदि दश यतिधर्म का पालन न करना । अप्रशस्त और प्रशस्त भावपिंड़ जिस प्रकार के भावपिंड़ से ज्ञानावरणादि कर्म का क्षय हो आत्मा कर्म से मुक्त होता जाए उसे प्रशस्त भावपिंड़ समजना । यहाँ एकादि प्रकारो को पिंड़ कैसे कहते है ? इस शंका के समाधान में समजो कि उस प्रकार को आश्रित करके उसके अविभाग्य अंश समूह को पिंड़ कहते है । या इन सबसे परीणाम के भाव से जीव को शुभाशुभ कर्मपिंड़ बाँधा जाने से उसे -

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