Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 188
________________ पिंड़नियुक्ति - ११७- १४० १८७ स्थान आता है । उसके बाद अनन्त हिस्से अधिक संयम स्थान के बीच-बीच में कंड़क के अनुसार संख्यात हिस्से अधिक संयमस्थान आता है, उसके बाद तीनों के बीच बीच में कंड़क प्रमाण संख्यात गुण अधिक संयम स्थान आता है, उसके बाद असंख्यात गुण अधिक का दुसरा संयम स्थान आता है । इसी क्रम से चार से अंतरित अनगिनत गुण अधिक के संयम स्थान आते है । उसके बाद एक संख्यात हिस्सा अधिक का संयम स्थान आए उस प्रकार से अनन्त हिस्से अंतरित असंख्यात हिस्से अधिक का कंड़क प्रमाण बने, उसके बाद दो के आँतरावाला संख्यात हिस्से अधिक का कंड़क प्रमाण बने । उसके बाद तीन के आँतरावाला संख्यात गुण अधिक का कंड़क प्रमाण बने, उन चारों के आंतरावाला असंख्यात् गुण अधिक का कंड़क प्रमाण बने । उसके बाद अनन्त गुण अधिक का दुसरा संयम स्थान आता है । इस क्रम के अनुसार अनन्त गुण अधिक के स्थान भी कंड़क प्रमाण करे । उसके बाद ऊपर के अनुसार अनन्त हिस्से अधिक का संयम स्थान उसके बीच-बीच में असंख्यात हिस्सा अधिक का उसके बाद दोनों बीच-बीच में संख्यात हिस्से अधिक का, उसके बाद तीन आंतरावाला संख्यात् गुण अधिक का और उसके बाद चार आंतरावाला असंख्यात गुण अधिक का कंड़क करे । यानि षट् स्थानक परिपूर्ण बने । ऐसे असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण षट् स्थानक संयम श्रेणी में बनते है । इस प्रकार संयम श्रेणी का स्वरूप शास्त्र में बताया है । आधाकर्मी आहार ग्रहण करनेवाला विशुद्ध संयम स्थान से नीचे गिरते हुए हीन भाव में आने से यावत् रत्नप्रभादि नरकगति की आयु बाँधता है । यहाँ शिष्य सवाल करता है कि, आहार तैयार करने से छह कायादि का आरम्भ गृहस्थ करता है, तो उस आरम्भ आदि का ज्ञानावरणादि पापकर्म साधु को आहार ग्रहण करने से क्यों लगे ? क्योंकि एक का किया हुआ कर्म दुसरे में संक्रम नहीं होता । जो कि एक का किया हुआ कर्म दुसरे में संक्रम होता तो क्षपक श्रेणी पर चड़े महात्मा, कृपालु और पूरे जगत के जीव के कर्म को नष्ट करने में समर्थ है; इसलिए सारे प्राणी के ज्ञानावरणादि कर्म को अपनी क्षपक श्रेणी में संक्रम करके खपा दे तो सबका एक साथ मोक्ष हो । यदि दुसरों ने किए कर्म का संक्रम हो शके तो, क्षपक श्रेणी में रहा एक आत्मा सारे प्राणी के कर्म को खपाने में समर्थ है ।' लेकिन ऐसा नहीं होता, इसलिए दुसरों ने किया कर्म दुसरे में संक्रम न हो शके ? ( उसका उत्तर देते हुए बताते है कि) जो साधु प्रमत्त हो और कुशल न हो तो साधु कर्म से बँधता है, लेकिन जो अप्रमत्त और कुशल होते है वो कर्म से नहीं बँधता । आधाकर्मी आहार ग्रहण करने की इच्छा करना अशुभ परीणाम है । अशुभ परीणाम होने से वो अशुभ कर्मबंध करता है । जो साधु आधाकर्मी आहार ग्रहण नहीं करते, उसका परीणाम अशुभ नहीं होता, यानि उसको अशुभ कर्मबंध नहीं होता । इसलिए आधाकर्मी आहार ग्रहण करने की इच्छा कोशिश से साधु को नहीं करनी चाहिए । दुसरेने किया कर्म खुद को तब ही बँधा जाए कि जब आधाकर्मी आहार ग्रहण करे और ग्रहण किया वो आहार खाए । उपचार से यहाँ आधाकर्म को आत्मकर्म कहा गया है । कौन-सी चीज आधाकर्मी बने ? अशन, पान, खादिम और स्वादिम । इस चार प्रकार का आहार आधाकर्मी बनता है । इस प्रकार प्रवचन में श्री तीर्थंकर भगवंत कहते है । किस प्रकार का आधाकर्मी बनता है ? तो धान्यादि की उत्पत्ति से लेकर चार प्रकार का आहार अचित्तप्राक बने तब तक यदि साधु का उद्देश रखा गया हो, तो वे तैयार आहार तक का

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