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ओघनियुक्ति-१०४५
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से ज्ञान संपत्ति हो । ऊँच-नीच पात्रा से चारित्र का भेद-विनाश होता है । दोषवाले पात्रा से दीवानगी होती है । पड़धी रहित पात्रा से गच्छ और चारित्र में स्थिरता नहीं रहती । खीले जैसे ऊँचे पात्रा से गच्छ और चारित्र में स्थिरता नहीं रहती । कमल जैसे चौड़े पात्रा से अकुशल होता है । व्रणछिद्रवाले पात्रा से शरीर में गर्मी आदि होती है । भीतर या बाहर से जले हुए पात्रा से मौत होती है ।
[१०४६] पात्रबँध - पात्रा बँधे और किनार चार अंगुल बचे ऐसे रखने चाहिए ।
[१०४७-१०४९] दोनों गुच्छा - एवं पात्रकेसरिका इन तीनों एक वेंत और चार अंगुल जितने रखने चाहिए दोनों गुच्छ भी ऊनी के ही रखने चाहिए । रज आदि से रक्षा के लिए नीचे का गुच्छा, गुच्छा से पड़ला की प्रमार्जना की जाए । पात्रा प्रमार्जन के लिए छोटे नर्म सूती कपड़े की पात्रकेसरिका - पात्र मुखवस्त्रिका जो पात्रा दीठ एक एक अलग रखे ।
[१०५०-१०५५] पड़ला - कोमल और मजबूत मौसम भेद से तीन, पाँच या साँत, इकट्ठे करने से सूर्य की किरणें न दिखे ऐसे ढ़ाई हाथ लम्बे और छत्तीस अंगुल चौड़े रखना अच्छा या उससे निम्न कक्षा के हो तो ऋतुभेद से नीचे के अनुसार धारण किया जाता है ।
उत्कृष्ट मजबूत पड़ला क्रमिक ३-४-५, मध्यम (कुछ जीर्ण) पड़ला क्रमिक ४-५६, जीर्ण पड़ला क्रमिक ५-६-७ गर्मी, शर्दी, वर्षा में रखना । भिक्षा लेने जाते हुए फूल, पत्र आदि से रक्षा करने के लिए पात्रा पर ढूंकने के लिए एवं लिंग ट्रॅकने के लिए पड़ला चाहिए।
[१०५६-१०५७] रजस्त्राण - पात्रा के प्रमाण में रखना । रज आदि से रक्षा के लिए प्रदक्षिणावर्त पात्रा को लपेटना । उसे पात्रा के अनुसार अलग रखना ।
[१०५८-१०५९] तीन वस्त्र- शरीर प्रमाण, ओढ़ने से खंभे पर रहे । ढ़ाई हाथ चौड़े, लम्बाई में देह प्रमाण दो सूती और एक ऊनी । घास, अग्नि आदि ग्रहण न करना पड़े, एवं शर्दी आदि से रक्षा हो उसके लिए और धर्मध्यान, शुकलध्यान अच्छी प्रकार से हो शके उसके लिए वस्त्र रखनेको भगवान ने कहा है ।
[१०६०-१०६४] रजोहरण - मूल में घन, मध्य में स्थिर और दशी के पास कोमल दशीवाला दांडी - निषधा के साथ पोरायाम अंगूठे के पर्व में प्रदेश की ऊँगली रखने से जितना हिस्सा चौड़ा रहे उतनी चौड़ाईवाला रजोहरण रखे । मध्य में डोर से तीन बार बाँधे । कुल बत्तीस अंगुल लम्बा । (दांड़ी चौबीस अंगुल, दशी आँठ अंगुल) हीन अधिक हो तो दोनो मिलकर बत्तीस अंगुल हो उतना रखे । लेने - रखने की क्रिया में पूंजने के लिए, प्रमार्जन के लिए एवं साधु लिंग की प्रकार रजोहरण धारण करे ।
[१०६५-१०६६] मुहपति - सूती एक वेंत चार अंगुल की एक और दुसरी मुख के अनुसार ट्रॅक शके उतनी वसति प्रमार्जना के समय बाँधने के लिए । संपातिम जीव की रक्षा के लिए, बोलते समय मुँह के पास रखने के लिए । एवं काजो लेने से रज आदि मुँह में न आ जाए उसके लिए दुसरी नासिका के साथ मुँह पर बाँधने के लिए ऐसे दो ।
[१०६७-१०७४] मात्रक - प्रस्थ प्रमाण । आचार्य आदि को प्रायोग्य लेने के लिए। या ओदन सुप से भरा दो गाऊँ चलकर आया हुआ साधु खा शके उतना । (मात्रक पात्र ग्रहण की विधि भी नियुक्तिक्रम १०७१ से १०७४ में है ।)