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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
इत्यादि से । भय से - झूठ बोले, पूछे तो झूठा जवाब दे इत्यादि से । दुसरों की प्रेरणा से - दुसरों ने आड़ा-टेढा समजा दिया उसके अनुसार काम करे । संकट में - विहार आदि में भूख-तृषा लगी हो, तब आहार आदि की शुद्धि की पूरी जांच किए बिना खा ले आदि से। बिमारी के दर्द में - आधाकर्मी आदि खाने से, मूढ़ता से - खयाल न रहने से । रागद्वेष से • राग और द्वेष से दोष लगते है ।
[११५४-११५५] गुरु के पास जाकर विनम्रता से दो हाथ जुड़कर जिस प्रकार से दोष लगे हो, वो सभी दोष शल्यरहित प्रकार से, जिस प्रकार छोटा बच्चा अपनी माँ के पास जैसा हो ऐसा सरलता से बोल देता है उसी प्रकार माया और मद रहित होकर दोष बताकर अपनी आत्म शुद्धि करनी चाहिए ।
[११५६] शल्य का उद्धार करने के बाद मार्ग के परिचित आचार्य भगवंत जो प्रायश्चित् दे, उसे उस प्रकार से विधिवत् पूर्ण कर देना चाहिए कि जिससे अनवस्था अवसर न हो । अनवस्था यानि अकार्य हो उसकी आलोचना न करे या आलोचना लेकर पूर्ण न करें।
[११५७-११६१] शस्त्र, झहर, जो नुकशान नहीं करते, किसी वेताल की साधना की लेकिन उल्टी की इसलिए वेताल, प्रतिकूल होकर दुःख नहीं देता, उल्टा चलाया गया यंत्र जो नुकशान नहीं करता, उससे काफी ज्यादा दुःख शल्य का उद्धार - आत्मशुद्धि न करने से होता है । शस्त्र आदि के दुःख से ज्यादा से ज्यादा तो एक भव की ही मौत हो, जब कि
आत्मशुद्धि नहीं करने से दुर्लभ - बोधिपन और अनन्त संसारीपन यह दो भयानक नुकशान होते है । इसलिए साधु ने सर्व अकार्य पाप की आलोचना करके आत्मशुद्धि करनी चाहिए। गारव रहितपन से आलोचना करने से मुनि भवसंसार समान लता की जड़ का छेदन कर देते है, एवं मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शन शल्य को दूर करते है । जिस प्रकार मजदूर को सिर पर रखे हुए बोझ को नीचे रखने से अच्छा लगता है, उसी प्रकार साधु गुरु के पास शल्य रहित पाप की आलोचना, निंदा, गर्दा करने से कर्मरूपी बोझ हलका होता है । सभी शल्य से शुद्ध बना साधु भक्त प्रत्याख्यान अनशन में काफी उपयोगवाला होकर मरणांतिक आराधना करते हुए राधा वेध की साधना करता है । इसलिए समाधिपूर्वक काल करके अपने उत्तमार्थ की साधना कर शकता है ।
[११६२] आराधना में बेचैन साधु अच्छी प्रकार से साधना करके, समाधिपूर्वक काल करे तो तीसरे भव में यकीनन मोक्ष पाता है ।
[११६३] संयम की वृद्धि के लिए धीर पुरुष ने यह सामाचारी बताई है ।
[११६४] चरणकरण में आयुक्त साधु, इस प्रकार सामाचारी का पालन करते हुए कई भव में बाँधे हुए अनन्ता कर्म को खपाते है ।
४१/१ मुनि दीपरत्नसागर कृत् ओघनियुक्ति-मूलसूत्र-२/१ हिन्दी अनुवाद पूर्ण