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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
कि 'आवस्सियाए जस्स जोगो' जो - जो संयम को जरुरी होगा वो ग्रहण करूँगा ।
गवेषणा दो प्रकार की है । एक द्रव्यगवेषणा, दुसरी भाव गवेषणा । द्रव्य गवेषणा - वसंतपुर नामके नगर में जितशत्रु राजा को धारिणी नाम की रानी थी । एक बार चित्रसभा में गईं, उसमें सुवर्ण पीठवाला मृग देखा । वो रानी गर्भवती थी, इसलिए उसे सुवर्ण पीठवाले मृग का माँस खाने का दोहलो (इच्छा) हुइ । वो इच्छा पूरी न होने से रानी का शरीर सूखने लगा | रानी को कमजोर होते देखकर राजाने पूछा कि, तुम क्यों कमजोर होती जाती हो ? तुम्हें क्या दुःख है ? रानी ने सुवर्ण पीठवाले मृग का माँस खाने की इच्छा के बात कही । राजा ने अपने पुरुषों को सुवर्णमृग को पकड़कर लाने का हुकूम किया । पुरुषोंने सोचा कि सुवर्णमृग को श्रीपर्णी फल काफी प्रिय होते है, लेकिन अभी उस फल की मौसम नहीं है । इसलिए नकली फल बनाकर जंगल में गए । वहाँ उस नकली फल के ढेर करके पेड़ के नीचे रख दिया । मृग ने वो फल देखे और अपने नायक को बात की, सभी वहाँ आए । नायक ने वो फल देखे और सभी मृग को कहा कि, किसी धूर्त ने हमें पकड़ने के लिए यह किया है । क्योंकि अभी इन फल की मौसम नहीं है । इसलिए वो फल खाने कोई न जाए ।' इस प्रकार नायक की बात सुनकर कुछ मृग वो फल खाने के लिए न गए । कुछ मृग नायक की बात की परवा किए बिना फल खाने के लिए गए जैसे ही फल खाने लगे वहीं राजा के पुरुपोंने उन मृग को पकड़ लिया । इसलिए उन मृग में से कुछ बँधे गए और कुछ मर गए । जिन मृग ने वो फल नहीं खाए वो सुखी हो गए, इच्छा के अनुसार वन में विचरण करने लगे।
भाव गवेषणा किसी महोत्सव अवसर पर कुछ साधु आए थे । किसी श्रावक ने या किसी भद्रिक ने साधुओ के लिए (आधाकर्मी) भोजन तैयार करवाया और दुसरे लोगों को बुलाकर भोजन देने लगे । उनके मन में था कि, 'यह देखकर साधु आहार लेने आएंगे ।' आचार्य को इस बात का किसी भी प्रकार पता चल गया । इसलिए साधुओ को कहा कि 'वहाँ गौचरी लेने के लिए मत जाना । क्योंकि वो आहार आधाकर्मी है ।' कुछ साधु वहाँ आहार लेने के लिए न गए, लेकिन किसी कुल में से गोचरी ले आए । जब कुछ साधु ने आचार्य के वचन की परवा न की और वो आहार लाकर खाया । जिन साधुओने आचार्य भगवंत का वचन सुनकर वो आधाकर्मी आहार न लिया, वो साधु श्री तीर्थंकर भगवंत की आज्ञा के आराधक बने और परलोक में महासुख पाया । जब कि जिन साधुओं ने आधाकर्मी आहार खाया वो साधु श्री जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा के विराधक बने और संसार का विस्तार किया । इसलिए साधुओने निर्दोष आहार पानी की गवेषणा करनी चाहिए और दोषित आहार पानी आदि का त्याग करना चाहिए । क्योंकि निर्दोष आहार आदि के ग्रहण से संसार का शीघ्र अन्त होता है । ग्रहण एषणा दो प्रकार से । एक द्रव्य, दुसरी भाव । द्रव्य ग्रहण एषणा एक जंगल में कुछ बंदर रहते थे । एक दिन गर्मी में फल, पान आदि सूखे देखकर बड़े बंदर ने सोचा कि, दुसरे जंगल में जाए ।' दुसरे अच्छे जंगल की जाँच करने के लिए अलग-अलग दिशा में कुछ बंदरो को भेजा । उस जंगल मे एक बड़ा द्रह था । यह देखकर बंदर खुश हो गए | बड़े बंदर ने उस ग्रह की चारों ओर जांच-पड़ताल की, तो उस द्रह में जाने के पाँव के निशान दिखते थे, लेकिन बाहर आने के निशान नहीं दिखते थे । इसलिए बड़े बंदरने सभी बंदरों को इकट्ठा करके कहा कि, इस द्रह से सावधान रहना । किनारे से या द्रह में जाकर पानी मत पीना, लेकिन पोली नली के द्वारा पानी पीना । जो बंदरने बड़े बंदर के कहने के अनुसार