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पिंडनियुक्ति-१४
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किया वो सुखी हुए । और जो द्रह में जाकर पानी पीने के लिए गए वो मर गए । इस प्रकार आचार्य भगवंत महोत्सव आदि में आधाकर्मी, उद्देसिक आदि दोषवाले आहार आदि का त्याग करवाते है और शुद्ध आहार ग्रहण करवाते है । जो साधु आचार्य भगवंत के कहने के अनुसार व्यवहार करते है, वो थोड़े ही समय में सभी कर्मो का क्षय करते है । जो आचार्य भगवंत के वचन के अनुसार व्यवहार नहीं करते वो कईं भव में जन्म, जरा, मरण आदि के दुःख पाते है ।
भाव ग्रहण एषणा के ग्यारह प्रकार - स्थान, दायक, गमन, ग्रहण, आगमन, प्राप्त, परवृत, पतित, गुरुक, त्रिविध भाव । स्थान - तीन प्रकार के आत्म ऊपघातिक, प्रवचन ऊपघातिक, संयम ऊपघातिक । दायक - आँठ वर्ष से कम उम्र का बच्चा, वृद्ध, नौकर, नपुंसक, पागल, क्रोधित आदि से भिक्षा ग्रहण मत करना । गमन - भिक्षा देनेवाले, भिक्षा लेने के लिए भीतर जाए, तो उस पर नीचे की जमी एवं आसपास भी न देखे । यदि वो जाते हुए पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि का संघट्टा करता हो तो भिक्षा ग्रहण मत करना । ग्रहण, छोटा, नीचा द्वार हो, जहाँ अच्छी प्रकार देख शकते न हो, अलमारी बंध हो, दरवाजा बंध हो, कईं लोग आते-जाते हो, बैलगाड़ी आदि पड़े हो, वहाँ भिक्षा मत ग्रहण करना । आगमन - भिक्षा लेकर आनेवाले गृहस्थ पृथ्वी आदि की विराधना करते हुए आ रहा हो तो भिक्षा मत ग्रहण करना । प्राप्त - कच्चा पानी, संसक्त या गीला हो तो, भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। परावर्त - आहार आदि दुसरे बरतन में डाले तो उस बरतन को कच्चा पानी आदि लगा हो तो उस बरतन में से आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए । पतित आहार पात्र में ग्रहण करने के बाद जांच करनी चाहिए । योगवाला पिंड़ है या स्वाभाविक, वो देखो । गुरुक - बड़े या भारी भाजन से भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए । त्रिविध - काल तीन प्रकार से । ग्रीष्म हेमंत और वर्षाकाल । एवं देनेवाले तीन प्रकार से - स्त्री, पुरुष और नपुंसक । उन हरएक में तरुण, मध्यम और स्थविर । नपुंसक शीत होते है, स्त्री उष्मावाली होती है और पुरुष शीतोष्ण होते है । उनमें पुरःकर्म, उदका, सस्निग्ध तीन होते है । वो हरएक सचित्त, अचित्त और मिश्र तीन प्रकार से है । पुरः कर्म और उदकाई में भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए । सस्निग्ध में यानी मिश्र और सचित्त पानीवाले हाथ हो, उस हाथ की ऊँगलीयाँ, रेखा और हथेली यदि सूखे हो तो भिक्षा ग्रहण किया जाए | भाव-लौकिक और लोकोत्तर, दोनों में प्रशस्त और अप्रशस्त।
ग्रासएषणा - बयालीस दोष रहित शुद्ध आहार ग्रहण करके, जांच करके, विधिवत् उपाश्रय में आकर, विधिवत् गोचरी की आलोचना करे । फिर मुहूर्त तक स्वाध्याय आदि करके, आचार्य, प्राघुर्णक, तपस्वी, बाल, वृद्ध आदि को निमंत्रणा करके आसक्ति बिना विधिवत् आहार खाए ।
आहार शुद्ध है या नहीं उसकी जांच करे वो गवेषणा एषणा । उसमें दोष न लगे उस प्रकार आहार ग्रहण करना यानि ग्रहण एषणा । और दोष न लगे उस प्रकार से खाए उसे ग्रास एषणा कहते है ।
संयोजना - वो द्रव्य संयोजना और भाव संयोजना ऐसे दो प्रकार से है । यानि उद्गम उत्पादन आदि दोष कौन-कौन से है, वो जानकर टालने की गवेषणा करे, आहार ग्रहण करने के बाद संयोजन आदि दोष न लगे ऐसे आहार खाए वो उद्देश है । प्रमाण- आहार कितना खाना उसका प्रमाण । अंगार - अच्छे आहार के या आहार बनानेवाले की प्रशंसा करना ।