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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
अनुकंपा से तीर्थ की अनुकंपा होती है । इसलिए प्रायोग्य ग्रहण करे । यदि आचार्य को प्रायोग्य मिलता हो, तो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से उत्कृष्ट द्रव्य प्रथम ग्रहण करे, उत्कृष्ट न मिलता हो तो यथायोग्य ग्रहण करे । म्लान के लिए नियमा प्रायोग्य ग्रहण करे । माँगकर भी प्रायोग्य ग्रहण करे ।।
[९५०-९५२] परठवते एक, दो, तीन ढ़ग करने के कारण • गौचरी आदि के लिए गए हुए बड़े मार्ग - अध्वनादि कल्प विहार में रहे साधुओं को शुद्ध अशुद्ध आदि आहार का पता चल शके या गाँव में रहे साधु को भी जरुरत हो इसलिए ।
[९५३-९६२] खाने के बाद ठल्ला आदि की शंका हो तो दूर अनापात आदि स्थंडिल में जाकर वोसिरावे । कारणशास्त्र में बताने के अनुसार (नियुक्तिक्रम ९५७ से ९५८) भी करे । कारणवातादि तीन शल्य दुर्धर है । फिर पडिलेहेण का समय हो तब तक स्वाध्याय करे ।
[९६३-९६७] चौथी पोरिसी (प्रहर) की शुरूआत होने पर उपवासी पहले मुहपत्ति और देह पडिलेहेकर आचार्य की उपधि पडिलेहे उसके बाद अनशन किए हुए की, नव दीक्षित की, वृद्ध आदि की क्रमशः पडिलेहेणा करे । फिर आचार्य के पास जाकर आदेश लेकर पात्र की पडिलेहेणा करे, फिर मात्रक और अपनी उपधि पडिलेही अन्त में चोलपट्टा पडिलेहे । खाया हो वो पहले मुहपत्ति, देह, चोलपट्टो पडिलेहे फिर क्रमशः गुच्छा, झोली, पड़ला, रजस्त्राण फिर पात्रा पडिलेहे | फिर आचार्य आदि की उपधि पडिलेहे । फिर आदेश माँगकर, गच्छ सामान्य पात्रा, वस्त्र, अपरिभोग्य (उपयोग न किए जानेवाले) पडिलेहे उसके बाद अपनी उपधि पडिलेहे । अन्त में रजोहरण पडिलेहेण करके बाँधे ।
[९६८-९७४] पडिलेहेण करने के बाद स्वाध्याय करे या सीना आदि अन्य कार्य हो तो वो करे, इस प्रकार स्वाध्याय आदि करके अन्तिम पोरिसी का चौथा हिस्सा बाकी रहे तब काल प्रतिक्रमके चौबीस मांडला करे । उतने में सूर्य अस्त हो । फिर सबके साथ प्रतिक्रमण करे । आचार्य महाराज धर्मकथादि करते हो, तो सभी साधु आवश्यक भूमि में अपने-अपने यथायोग्य स्थान पर काऊस्सण में रहकर स्वाध्याय करे ।
कोई ऐसा कहते है कि, साधु सामायिक सूत्र कहकर काऊस्सम्ग में ग्रंथ के अर्थ का पाठ करे जब तक आचार्य न आए तब तक चिन्तवन करे । आचार्य आकर सामायिक सूत्र कहकर, दैवसिक अतिचार चिंतवे, तब साधु भी मन में दैवसिक अतिचार चिंतवे । दुसरे ऐसा कहते है कि, आचार्य के आने पर स्वाध्याय करनेवाले साधु भी आचार्य के साथ सामायिक सूत्र चिन्तवन करने के बाद अतिचार चिन्तवन करे । आचार्य अपने अतिचार दो बार चिन्तवन करे, साधु एक बार चिन्तवन करे । क्योंकि साधु गोचरी आदि के लिए गए हो तो उतने में चिन्तवन न कर शके ।
खड़े खड़े काउस्सग करने के लिए असमर्थ हो, ऐसे बाल, वृद्ध, ग्लान आदि साधु बैठकर कायोत्सर्ग करे । इस प्रकार आवश्यक पूर्ण करे । ऊंचे बढते स्वर से तीन स्तुति मंगल के लिए बोले, तब काल के ग्रहण का समय हुआ कि नहीं उसकी जांच करे ।
[९७५-१००५] काल दो प्रकार के है - व्याघात और अव्याघात । व्याघात - अनाथ मंडप में जहाँ वैदेशिक के साथ या बँभा आदि के साथ आते-जाते संघट्टो हो एवं आचार्य श्रावक आदि के साथ धर्मकथा करते हो तो कालग्रहण न करे । अव्याघात किसी