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ओघनियुक्ति - ७६
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पानी में खीचे जाए तो लोग बचा ले । तट पर जाने के बाद चोलपट्टे का पानी बह जाए तब तक खड़ा रहे । यदि भय हो तो गीले चोलपट्टे को शरीर को न छूए उस प्रकार से लटकाकर रखके आगे जाए । नदी में उतरने से यदि वहाँ गृहस्थ न हो तो शरीर से चार अंगुल उपर लकड़ी से पानी नापे । यदि ज्यादा पानी हो तो उपकरण इकट्ठे करके बाँधे और बड़ा पात्र उल्टा करके शरीर के साथ बाँधकर तैरकर सामने के किनारे पर जाए । यदि नाँव में बैठकर उतरना पड़े तो संवर यानि पञ्चकखाण करे नाँव के बीच बैठे, नवकार मंत्र स्मरण करे और किनारे पर उतरकर इरियावही करे । उतरते समय पहले या बाद में न उतरे लेकिन बीच में उतरे और पचीस श्वासोच्छ्वास प्रमाण काऊसग्ग करे । यदि नाँव न हो तो लकड़े या तुंब के सहारे से नदी पार करे ।
[७७] रास्ते में जाते हुए वनदव लगा हो तो अग्नि आगे हो तो पीछे जाना, सामने आ रहा हो तो तृण रहित भूमि में खड़े रहना, तृण रहित भूमि न हो तो कंबल गीला करके ओढ़ ले और यदि ज्यादा अग्नि हो तो चमड़ा ओढ़ ले या उपानह धारण करके जाए । [७८] यदि काफी हवा चल रही हो तो खदान में या पेड़ के नीचे खड़े रहे । यदि वहाँ खड़े रहने में भय हो तो छिद्र रहित कँबल ओढ़ ले और किनार लटके नहीं ऐसे जाना । [७९] वनस्पति तीन प्रकार से है । सचित्त, अचित्त, मिश्र । वो भी प्रत्येक और सामान्य दो भेद से हो । वो हर एक स्थिर और अस्थिर भेद से होते है । उसके भी चारचार भेद है । दबी हुई भयरहित, मसलीहुइ-भययुक्त, न मसली हुइ-भयरहित, न मसली हुइभययुक्त उसमें सचित्त, प्रत्येक, स्थिर, आक्रान्त और भय रहित वनस्पति में जाना । यदि ऐसा न हो तो स्थिति के अनुसार व्यवहार करना ।
[ ८० ] बेइन्द्रिय जीव सचित्त, अचित्त, मिश्र तीन भेद से बताए है । उसके स्थिर संघयण दो भेद उन हरएक के आक्रान्त, अनाक्रान्त, सप्रत्ययाय, ( भययुक्त) और अप्रत्यपाय (भय रहित ) ऐसे चार भेद बताए है । उसी प्रकार तेइन्द्रिय, चऊरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के लिए समजना, उसमें अचित्त सवाली भूमि में जाना ।
[८१-८३] पृथ्वीकाय और अप्काय वाले दो रास्ते में से पृथ्वीकाय में जाना, पृथ्वी और वनस्पतियुक्त मार्ग हो तो पृथ्वीकाय में जाना, पृथ्वी- त्रस - वनस्पति हो तो सरहित पृथ्वी मार्ग में जाना, अपूकाय, वनस्पतिकाय वाला मार्ग हो तो वन के रास्ते में जाना तेऊ- वाऊ के अलावा भी अन्य स्थिति है उसके लिए संक्षेप में कहा जाए तो कम से कम विराधनावाले मार्ग में जाना चाहिए ।
[८४-८५] सभी जगह संयम रक्षा करना । संयम से भी आत्मा की रक्षा करना । क्योंकि जिन्दा रहेगा तो पुनः तप आदि से विशुद्धि कर लेगा । संयम के निमित्त से देह धारण किया है । यदि देह ही न हो तो संयम का पालन किस प्रकार होगा ? संयम वृद्धि के लिए शरीर का पालन इष्ट है ।
[८६-९८] लोग भी दलदल, शिकारी, जानवर, कुत्ते, पथरीला कंटवाला और काफी पानी हो ऐसे रास्ते का त्याग करते है । तो फिर साधु में गृहस्थ में क्या फर्क ? गृहस्थ जयणा या अजयणा को नहीं जानते । सचित्त, मिश्र प्रत्येक या अनन्त को नहीं जानते । जीव वध न करना ऐसे पच्चक्खाण नहीं, जब साधु को यह प्रतिज्ञा और पता चलता है वो विशेषता है लोग मौत का भय और परीश्रम भाव से वो पथ छोड़ देते है । जब साधु दया के परीणाम
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