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ओघनियुक्ति-१५
एक-एक खदान बाँट दी थी, लोहे की खदान वाले को फिक्र हुइ कि मुझे तो फिझूल खदान मिली (तब मंत्रीने समजाया कि) दुसरी तीनो खदाने लोहे पर सहारा रखती है । वो सब तुम्हारे पास लोहा माँगने के लिए आए तब रत्न, सोना और चाँदी के बदले में तुम लोहा देना (तू धनवान बन जाएगा) उस प्रकार से चारित्र में समर्थ हो तो बाकी के अनुयोग ग्रहण करना सरल है । इसलिए चरणानुयोग सबसे ताकतवर है ।।
[१६-१७] (चरणानुयोग में अल्प अक्षर होने के बावजूद अर्थ से महान-विस्तृत है ।) यहाँ चऊभंगी है । अक्षर कम बड़े अर्थ, अक्षर ज्यादा कम अर्थ । दोनो ज्यादा या दोनो कम उसमे ओघ समाचारी प्रथम भंग का दृष्टांत है । ज्ञाताधर्मकथा दुसरे भंग का, दृष्टिवाद तीसरे भंग का क्योंकि वहाँ अक्षर और अर्थ दोनों ज्यादा है । लौकिक शास्त्र चौथे भंग का ध्यंत है ।
[१८-१९] बाल जीव की अनुकंपा से जनपद को अन्नबीज दिए जाए उस प्रकार से स्थविर उस साधु के अनुग्रह के लिए ओघनियुक्ति वर्तमान काल अपेक्षा से इस (अब फिर कहलाएंगे) पद हिस्से के रूप में ओघनिर्युक्त उपदिष्ट की है । (यहाँ स्थविर यानि भद्रबाहू गमी समजना ।)
[२०] ओघनियुक्ति के साँत द्वार बताए है । प्रतिलेखना, पिंड, उपधि प्रमाण, अनायतन वर्जन, प्रतिसेवना, आलोचना और विशुद्धि ।।
[२१] आभोग, मार्गणा, गवेषणा, ईहा, अपोह, प्रतिलेखना, प्रेक्षणा, निरीक्षणा, आलोकना और प्रलोकना (एकार्थिक नाम है ।)
[२२] जिस प्रकार घड़ा' शब्द कहने से कुम्हारघड़ा और मिट्टी आ जाए ऐसे यहाँ भी प्रतिलेखना पडिलेहेण करनेवाले साधु, प्रतिलेखना और प्रतिलेखितव्य - पडिलेहेण करने की वस्तु उन तीनों की यहाँ प्ररूपणा की जाएगी ।।
२३-२७] प्रतिलेखक - एक हो या अनेक हो, कारणिक हो या निष्कारणिक साधर्मिक हो या वैधर्मिक ऐसा संक्षेप से दो प्रकार से जानना उसमें अशिव आदि कारण से अकेले जाए तो कारणिक, धर्मचक्र स्तुप, यात्रादि कारण से अकेले जाए तो निष्कारिणक उसमें एक कारणिक यहाँ कहलाएगा उसके अलावा सभी को स्थित समजना | अशिव, अकाल, राजा का भय, क्षोभ, अनशन, मार्ग भूलना, बिमारी, अतिशय, देवता के कहने से और आचार्य के कहने से इतने कारण से अकेले हो तब वो कारणिक कहलाते है । बारह साल पहले खयाल आता है कि अकाल होगा । तो विहार करके सूत्र और अर्थ पोरिसि से दुसरे सूखे प्रदेश में जाए । इस अकाल का पता अवधि ज्ञानादि अतिशय से, निमित्त ज्ञान से शिष्य का वाचना के द्वारा बताए कि जैसे या जब अन्य प्रकार से पता चले तब विहार करे । या ग्लानादि कारण से नीकल न शके ।
[२८-२९] साधु भद्रिक हो - गृहस्थ न हो, गृहस्थ भद्रिक हो लेकिन साधु न हो, दोनो भद्रिक हो या एक भी भद्रिक न हो । दुसरी चऊभंगी साधु भद्रिक हो लेकिन गृहस्थ तुच्छ प्रान्त हो, गृहस्थ भद्रिक हो लेकिन साधु तुच्छप्रान्त हो, दोनो प्रान्त हो, दोनो भद्रिक हो । उसमें दोनो भद्रिक हो तब विहार करके उपसर्ग न हो वहाँ जाए । अशिव प्राप्त (-ग्लान) साधु को तीन परम्परा से भोजन देना । एक ग्रहण करे । दुसरा लाए, तीसरा अवज्ञापूर्वक दे । ग्लान की देखभाल के लिए रूके हो तब उसे विगई, नमक, दशीवाला वस्त्र और लोहस्पर्श उन