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महानिशीथ-७/-/१४३६
[१४३६-१४३८] उस अनुसार प्रायश्चित् करने के बाद कोइ छ जीवनिकाय के व्रत, नियम, दर्शन, ज्ञान और चारित्र या शील के अंग का भंग करे, क्रोध से, मान से, माया से, लालच आदि कषाय के दोष से भय, कंदर्प या अभिमान से यह और दुसरी वजह से गाव से या फिझूल आलम्बन लेकर जो व्रतादिक का खंडन करे । दोष का सेवन करे वो सर्वार्थ सिद्ध के विमान तक पहुँचकर अपनी आत्मा को नरक में पतन दिलाते है ।
[१४३९] हे भगवंत ! क्या आत्मा को रक्षित रखे कि छ जीवनिकाय के संयम की रक्षा करे ? हे गौतम ! जो कोइ छ जीवनिकाय के संयम का रक्षण करनेवाला होता है वो अनन्त दुःख देनेवाला दुर्गति गमन अटकने से आत्मा की रक्षा करनेवाला होता है । इसलिए छ जीवनिकाय की रक्षा करना ही आत्मा की रक्षा माना जाता है । हे भगवंत ! वो जीव असंयम स्थान कितने बताए है ? ।
[१४४०] हे गौतम ! असंयम स्थान काफी बताए है । जैसे कि पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीव सम्बन्धी असंयम स्थान, हे भगवंत ! वो काय असंयम स्थान कितने बताए है ? हे गौतम ! काय असंयम स्थानक कई तरह के प्ररूपे हुए है । वो इस प्रकार
[१४४१-१४४३] पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और अलग-अलग तरह के त्रस जीव को हाथ से छूना यावजीवन पर्यन्त वर्जन करना, पृथ्वीकाय के जीव को ठंड़े, गर्म, खट्टे चीजो के साथ मिलाना, पृथ्वी खुदना, अग्नि, लोह, झाकल, खट्टे, चीकने तेलवाली चीजे पृथ्वीकाय आदि जीव का आपस में क्षय करनेवाले, वध करनेवाले शस्त्र समजना । स्नान करने में शरीर पर मिट्टी आदि पुरुषन करके स्नान करने में, मुँह धोकर शोभा बढ़ाने में हाथ, ऊँगली, नेत्र आदि का शौच करने में, पीने में कई अपकाय के जीव क्षय होते है ।
[१४४४-१४४५] अग्नि संध्रुकने में, जलाने में, उद्योत करने में, पक्न खाने में, फॅकने में, संकोरने में, अग्निकाय के जीव का समुदाय क्षय होता है । यदि अग्नि अच्छी तरह से जल ऊठे तो दश दिशा में रही चीजो को खा जाती है ।
[१४४६] वींजन, ताड़पत्र के पंखे, चामर ढोलना, हाथ के ताल ठोकना, दौड़ना, कूदना, उल्लंघन करना, साँस लेना, रखना, इत्यादिक वजह से वायुकाय के जीव की विराधनाविनाश होता है ।
[१४४७-१४४८] अंकुरण, बीज, कुंपण, प्रवाल पुष्प, फूल, कंदल, पत्र आदि के वनस्पतिकाय के जीव हाथ के स्पर्श से नष्ट होते है । दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रियवाले त्रसजीव अनुपयोग से और प्रमत्तरूप से चलते-चलते आते-जाते बैठते-उठते, सोते-जगते यकीनन क्षय हो तो मर जाते है ।
[१४४९] प्राणातिपात की विरति मोक्षफल देनेवाली है । बुद्धिशाली ऐसी विरति को ग्रहण करके मरण समान आपत्ति आ जाए जो भी उसका खंडन नहीं करता ।
[१४५०-१४५२] झूठ वचन न बोलने की प्रतिज्ञा ग्रहण करके सत्य वचन न बोलना, पराइ चीज बिना दिए हुए न लेने की प्रतिज्ञा ग्रहण करके कोई वैसी चीज दे तो भी लालच मत करना । दुर्धर ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करके परिग्रह का त्याग करके, रात्रि भोजन की विरति अपनाकर विधिवत् पाँच इन्द्रिय का निग्रह करके दुसरे-लेकिन क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष के विषय में आलोयणा देकर, ममत्वभाव अहंकार आदि का त्याग करना ।