________________
महानिशीथ-७/-/१४८२
अतिक्रमण, चौथा मैथुन विरमण नाम के महाव्रत में शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श और प्रविचार के विषय में जो अतिक्रमण हुआ हो, पाँचवें परिग्रह विरमण नाम के महाव्रत के विषय में पाने की अभिलाषा, प्रार्थना, मूर्छा, शुद्धि-कांक्षा, गँवाई हुई चीज को शोक उसके रूप जो लोभ वो रौद्र ध्यान की वजह समान है । इन सब में पाँचवे व्रत में दोष गिने है । रात को भूख लगेगी ऐसा सोचकर दिन में ज्यादा आहार लिया, सूर्योदय या सूर्यास्त का शक होने के बावजूद आहार ग्रहण किया हो उस रात्रि भोजन विरमण व्रत में अतिक्रम दोष बताया हो । आलोचना निन्दना गर्हणा प्रायश्चित्त करके शल्य रहित बना हो लेकिन जयणा. को न समजता हो तो सुसढ की तरह भव संसार में भ्रमण करनेवाला होता है ।
[१४८३] हे भगवंत ! वो सुसढ़ कौन था ? वो जयणा किस तरह की थी या अज्ञानता की वजह से आलोचना, निन्दना, गर्हणा प्रायश्चित्त सेवन करने के बावजूद उसका संसार नष्ट नहीं हुआ ? हे गौतम ! जयणा उसे कहते है कि जो अट्ठारह हजार शील के अंग, सत्तरह तरह का संयम, चौदह तरह के जीव का भेद, तेरह क्रिया स्थानक. बाह्य अभ्यंतरभेदवाले बारह तरह के तप, अनुष्ठान, बारह तरह की भिक्षुप्रतिमा, दश तरह का श्रमणधर्म, नौ तरह की ब्रह्मचर्य की गुप्ति, आँठ तरह की प्रवचनमाता, साँत तरह की पानी और पिंड़ की एषणा, छ जीवनिकाय, पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति सम्यग-दर्शन ज्ञान चारित्र समान रत्नत्रयी आदि संयम अनुष्ठान को भिक्षु निर्जन-निर्जल अटवी दुष्काल व्याधि आदि महा आपत्ति उत्पन्न हुई हो, अन्तर्मुहर्त केवल आयु बाकी हो, प्राण गले में अटक गए हो तो भी मन से वो अपने संयम का खंडन नहीं करते । विराधना नहीं करते, नहीं करवाते, अनुमोदना नहीं करते । यावत् जावज्जीपर्यन्त आरम्भ नहीं करते या करवाते इस तरह की पूरी जयणा जाननेवाले, पालन करनेवाले जयणा के भक्त है, जयणा ध्रुवरूप से पालनेवाले है, जयणा में निपुण है, वो जयणा से परिचित है । इस सुसढ़ की काफी विस्मय करवानेवाली बड़ी कथा है ।
अध्ययन-७-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-८-सुसढ़ कथा/चूलिका-२) [१४८४] हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहा ? उस समय में उस समय यहाँ सुसढ़ नाम को एक अनगार था । उसने एक-एक पक्ष के भीतर कईं असंयम स्थानक की आलोचना दी और काफी महान घोर दुष्कर प्रायश्चित्त का सेवन किया । तो भी उस बेचारे को विशुद्धि पद प्राप्त नहीं हुआ । इस कारण से ऐसा कहा ।
हे भगवंत ! उस सुसढ़ की वक्तव्यता किस तरह की है ?
हे गौतम ! इस भारत वर्ष में अवन्तिनाम का देश है । वहाँ संबुक्क नाम का एक छोटा गाँव था । उस गाँव में जन्म दरिद्र मर्यादा-लज्जा रहित कृपा रहित, कृपण अनुकंपा रहित, अतिक्रूर, निर्दय, रौद्र परीणामवाला, कठिन, शिक्षा करनेवाला, अभिग्रहिक मिथ्यादृष्टि जिसका नाम भी लेना पाप है, ऐसा सुज्ञशिव नामका ब्राह्मण था, सुज्ञश्री उसकी बेटी थी । समग्र तीन भुवन में नर और नारी समुदाय के लावण्य कान्ति तेज समान सौभायातिशय करने से उस लडकी के लावण्य रूप कान्ति आदि अनुपम और बढ़ियाँ थे वो सुज्ञश्री ने किसी अगले दुसरे भव में ऐसा दुष्ट सोचा था कि यदि इस बच्चे की माँ मर जाए तो अच्छा तो में शोक रहित 17