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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
है, सेवनीय है, उपदेशनीय है, कथनीय है, पढ़ने के लायक है, प्ररूपणीय है, करवाने के लायक है, धर्म ध्रुव है, शाश्वत है, अक्षय है, स्थिर रहनेवाला है । समग्र सुख का भंडार है, धर्म अलज्जनीय है, धर्म अतुल, बल, वीर्य, सम्पूर्ण सत्त्व, पराक्रम सहितपन दिलानेवाला होता है । प्रवर, श्रेष्ठ, इष्ट, प्रिय, कान्त दृष्टिजन का संयोग करवानेवाला हो तो वो धर्म है । समग्र असुख, दारिद्रय, संताप, उद्धेग, अपयश, झूठे आरोप प्राप्त होना, बुढ़ापा, मरण आदि समग्र भय को सर्वथा नष्ट करनेवाला, जिसकी तुलना में कोइ न आ शके वैसा सहायक, तीन लोक में बेजोड़ नाथ हो तो केवल एक धर्म है ।
इसलिए अब परिवार, स्वजनवर्ग, मित्र, बँधु, वर्ग, भंडार आदि आलोक की चीजो से प्रयोजन नहीं है । और फिर यह ऋद्धि-समृद्धि इन्द्र, धनुष, बीजली, लत्ता के आटोप से ज्यादा चंचल, स्वप्न और इन्द्र जल समान देखने के साथ ही पल में गुम होनेवाली, नाशवंत, अध्रुव, अशाश्वत, संसार की परम्परा बढ़ानेवाला, नारक में उत्पन्न होने के कारण रूप, सद्गति के मार्ग में विघ्न करनेवाला, अनन्त दुःख देनेवाला है | अरे लोगो ! धर्म के लिए यह समय काफी दुर्लभ है । सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप धर्म को साँधनेवाला, आराधना करवानेवाला, अनुपम सामग्रीयुक्त ऐसा समय फिर नहीं मिलेगा । और फिर मिला हुआ यह शरीर हमेशा रातदिन हरएक पल में और हरएक समय में टुकड़े टुकड़े होकर सड़ गया है । दिन-प्रतिदिन शिथिल होता जाता है । घोर, निष्ठुर, असभ्य, चंड़, जरा समान, वज्र शिला के प्रतिघात से टुकड़े-टुकड़े होकर सेंकड़ो पड़वाले जीर्ण मिट्टी के हांड़ी समान, किसी काम में न आए ऐसा, पूरी तरह बिन जरुरी बन गया है । नए अंकुर पर लगे जलबिन्दु की तरह अचानक अर्धपल के भीतर एकदम यह जीवित पेड़ पर से उड़ते हए पंछी की तरह उड़ जाते है । परलोक के लिए भाथा उपार्जन न करनेवाले को यह मानव जन्म निष्फल है तो अब छोटे-से छोटा प्रमाद भी करने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ ।
यह मनुष्यरूप में सर्वकाल मित्र और शत्रु के प्रति समान भाववाले बनना चाहिए । वो इस प्रकार समग्र जीव के प्राण के अतिपात की त्रिविध-त्रिविध से विरति, सत्य वचन बोलना, दाँत खुतरने की शलाका समान या लोच करने की भस्म समान निर्मुल्य चीज भी बिना दिए ग्रहण न करना । मन, वचन, काया के योग सहित अखंडित अविराधित नवगुप्ति सहित परम पवित्र, सर्वकाल दुर्धर ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करना । वस्त्र, पात्र, संयम के उपकरण पर भी निर्ममत्व, अशन-पानादिक चार आहार का रात को त्याग करना, उद्गमउत्पादना एषणादिक में पाँच दोष से मुक्त होना, परिमित समय भोजन करना, पाँच समिति का शोधन करना, तीन गुप्ति से गुप्त होना, इयासमिति आदि भावना, अशनादिक तप के उपधान का अनुष्ठान करना । मासादिक भिक्षु की बारह प्रतिमा, विचित्र तरह के द्रव्यादिक अभिग्रह, अस्नान, भूमिशयन, केशलोच, शरीर की टापटीप न करना, हमेशा सर्वकाल गुरु की आज्ञा के अनुसार व्यवहार करना । क्षुधा प्यास आदि परिषह सहना । दिव्यादिक उपसर्ग पर विजय पाना । मिले या न मिले दोनों में समभाव रखना । या मिले तो धर्मवृद्धि, न मिले तो तपोवृद्धि वैसी भावना रखना । ज्यादा कितना बँयान करे ? अरे ! लोगो ! यह अठ्ठारह हजार शीलांग के बोझ बिना विश्रान्ति से श्री महापुरुष से वहन कर शके वैसा काफी दुर्धर मार्ग वहन करने के लायक है । विशाद पाए बिना तो बाहा से यह महासागर तैरने के समान