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महानिशीथ-८/२/१५२४
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पापकर्म की राशि को जलाकर भस्म करने के लिए समर्थ प्रायश्चित् है, उसमें प्रमाद करे, उसकी अवहेलना करे, अश्रद्धा करे, शिथिलता करे, यावत् अरे इसमें क्या दुष्कर है ? ऐसा करके उस प्रकार से यथार्थ प्रायश्चित् सेवन न कर दे । हे गौतम ! वो सुसढ़ अपना यथायोग्य आयु भुगतकर मरकर सौधर्मकल्प में इन्द्र महाराजा के महर्द्धिक सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुए । वहाँ से च्यवकर यहाँ वासुदेव बनकर साँतवी नरक पृथ्वी में उत्पन्न हुआ । वहाँ से नीकलकर महाकायवाला हाथी होकर मैथुनासक्त मानसवाला मरकर अनन्तकाय वनस्पति में गया । हे गौतम ! यह वो सुसढ़ कि जिसने
[१५२५-१५२६] आलोचना, निन्दा, गर्हा, प्रायश्चित् करने के बावजूद भी जयणा का अनजान होने से दीर्धकाल तक संसार में भ्रमण करेगा । हे भगवंत ! कौन-सी जयणा उसने न पहचानी कि जिससे उस प्रकार के दुष्कर काय-क्लेश करके भी उस प्रकार के लम्बे अरसे तक संसार में भ्रमण करेगा ? हे गौतम ! जयणा उसे कहते है कि अठारह हजार शील के सम्पूर्ण अंग अखंड़ित और अविराधित यावज्जीव रात-दिन हरएक समय धारण करे और समग्र संयम क्रिया का अच्छी तरह से सेवन करे । वो बात उस सुसढ़ने न समजी । उस कारण से वो निर्भागी दीर्धकाल तक संसार में परिभ्रमण करेगा।
हे भगवंत ! किस कारण से जयणा उसके ध्यान में न आई ? हे गौतम ! जितना उसने कायक्लेश सहा उसके आँठवे हिस्से का यदि सचित जल का त्याग किया होता तो वो सिद्धि में ही पहुँच गया होता । लेकिन उस सचित जल का उपयोग परिभोग करता था । सचित जल का परिभोग करनेवाले का काफी कायक्लेश हो तो भी निरर्थक हो जाता है ।
हे भगवंत ! अपकाय, अग्निकाय और मैथुन यह तीनों को महापाप के स्थानक बताए है । अबोधि देनेवाले है । उत्तम संयत साधु को उन तीनों का एकान्त में त्याग करना चाहिए। उसका सेवन न करना चाहिए । इस कारण से उसने उस जयणा को न समजा । हे भगवंत ! किस कारण से अपकाय, अग्निकाय, मैथुन अबोधि देनेवाले बताए है ? हे गौतम! जो कि सर्व छह काय का समारम्भ महापाप स्थानक बताए है, लेकिन अपकाय अग्निकाय का समारम्भ अनन्त सत्त्व का उपघात करनेवाला है । मैथुन सेवन से संख्यात, असंख्यात जीव का विनाश होता है । सज्जड राग-द्वेष और मोह युक्त होने से एकान्त अप्रशस्त अध्यवसाय के आधीन होते है । जिस कारण से ऐसा होता है उस कारण से हे गौतम ! उन जीव का समारम्भ सेवन परिभोग करनेवाले ऐसे पाप में से व्यवहार करनेवाले जीव प्रथम महाव्रत को धारण करनेवाले न बने । उसकी कमी में बाकी के महाव्रत संयमानुष्ठान की कमी ही है, जिससे ऐसा है । इसलिए सर्वथा विराधित श्रमणपन माना जाता है । जिस कारण से इस प्रकार है इसलिए सम्यग् मार्ग प्रवर्तता है । उसका विनाश करनेवाला होता है । उस कारण से जो कुछ भी कर्मबंधन करे उससे नरक तिर्यंच कुमानवपन में अनन्त बार उत्पन्न हो कि जहाँ बार-बार धर्म ऐसे अक्षर भी सपने में न सुने और धर्म प्राप्त न करते हुए संसार में भ्रमण करे। इस कारण से जल, अग्नि और मैथुन अबोधिदायक बताए है ।
___ हे भगवंत ! क्या छठ्ठ, अठ्ठम, चार, पाँच उपवास अर्धमास, एक मास यावत् छ मास तक हमेशा के उपवास काफी घोर वीर उग्र कष्टकारी दुष्कर संयम जयणा रहित ऐसा अति महान कायकलेश किया हो तो क्या निरर्थक हो ? हे गौतम ! हा, निरर्थक है । हे भगवंत! किस कारण से ? हे गौतम ! गधे, ऊँट, बैल आदि प्राणी भी संयम जयणा रहित पन से इच्छा