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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
वेदता है लेकिन कर्म नहीं बाँधते । पुराने कर्म को नष्ट करते है, नए कर्म की तो उसे कमी ही है, इस प्रकार कर्म का क्षय जानना । इस विषय में समय की गिनती न करना । अनादि समय से यह जीव है तो भी कर्म पूरे नहीं होते । कर्म का क्षयोपशम होने के कारण से जब विरति धर्म का विकास हुआ, तब - कालक्षेत्र भव और भाव द्रव्य प्राप्त करके यावत् अप्रमादी होकर जीव कर्म खपाए तब जीव के कोटि मार्ग में आगे बढ़े, जो प्रमादी हो तो वो अनन्तकाल का कर्म बाँधे, चार गति में सर्वकाल अति दुःखी जीव वास करनेवाले होते है, इसलिए काल क्षेत्र, भव, भाव पाकर बुद्धिवाली आत्मा शीघ्र कर्म का क्षय करता है ।
[१५२४] हे भगवंत ! वो सुझश्री कहाँ उत्पन्न हुई ? हे गौतम ! छठ्ठी नरक पृथ्वी में, हे भगवंत ! किस कारण से ? उसके गर्भ का नौ मास से ज्यादा समय पूर्ण हुआ तब सोचा कि कल सुबह गर्भ गिरा दूँगी । इस प्रकार का अध्यवसाय करते हुए उसने बच्चे को जन्म दिया | जन्म देने के बाद तुरन्त उसी पल में मर गई । इस कारण से सुज्ञश्री छठ्ठी नरक में गइ। हे भगवंत ! जिस बच्चे को उसने जन्म दिया फिर मर गईं वो बच्चा जिन्दा रहा कि नहीं ? हे गौतम! जीवित रहा है । हे भगवंत ! किस तरह ? हे गौतम! जन्म देने के साथ ही वो बच्चा उस प्रकार की ओर चरबी लहूँ गर्भ को लिपटकर रहे, बदबूवाले पदार्थ, परू, खारी बदबूवाली अशुचि चीजो से लीपटा अनाथ विलाप करनेवाले उस बच्चे को एक श्वानने कुम्हार के चक्र पर स्थापना करके भक्षण करने लगा । इसलिए कुम्हारने उस बच्चे को देखा, तब उसकी पत्नी सहित कुम्हार बच्चे की ओर दौड़ा । बच्चे के शरीर को नष्ट किए बिना श्वान भाग गया । तब करूणापूर्ण हृदयवाले कुम्हार को लड़का न होने से यह मेरा पुत्र होगा ऐसा सोचकर कुम्हार ने उस बच्चे को अपनी बीवी को समर्पण किया । उसने भी सच्चे स्नेह से उसकी देख-भाल करके उस बच्चे को मानव के रूप में तैयार किया । उस कुम्हारने लोकानुवृत्ति से अपने पिता होने के अभिमान से उसका सुसढ़ नाम रखा ।
गौतम ! कालक्रम से सुसाधु का समागम हुआ । देशना सुनकर प्रतिबोध पाया । और उस सुसढ़ने दीक्षा अंगीकार की । यावत् परमश्रद्धा संवेग और वैराग पाया । काफी धोर वीर उग्र कष्ट करके दुष्कर महाकाय क्लेश करते है । लेकिन संयम मे यतना किस प्रकार करना वो नहीं जानता । अजयणा के दोष से सर्वत्र असंयम के स्थान में अपराध करनेवाला होता है । तब उसे गुरु ने कहा कि - अरे महासत्वशाली ! तुम अज्ञान दोष के कारण से संयम में जयणा कैसे करनी वो मालूम न होने से महान कायक्लेश करनेवाला होता है । हमेशा आलोयणा देकर प्रायश्चित् नहीं करता । तो तुम्हारा यह किया हुआ सर्व तप-संयम निष्फल होता है । जब इस प्रकार गुरु ने उसको प्रेरणा दी तब हंमेशा आलोचना देते है, वो गुरु भी उसे उस तरह का प्रायश्चित् देते है कि जिसप्रकार से संयम में जयणा करनेवाला बने । उसी के अनुसार रात-दिन हरेक समय आर्तध्यान, रौद्रध्यान से मुक्त शुभ अध्यवसाय में हंमेशा विचरण करता था । हे गौतम! किसी समय वो पापमतिवाला जो किसी छठ्ठ, अठ्ठम, चार, पाँच, अर्धमास मास यावत् छ मास के उपवास या दुसरे बड़े कायक्लेश हो वैसे प्रायश्चित् उसके अनुसार अच्छी तरह से सेवन करे लेकिन जो कुछ भी संयम क्रिया में जयणावाले मन, वचन, काया के योग, समग्र आश्रव का रोध, स्वाध्याय, ध्यान आवश्यक आदि से समग्र
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