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महानिशीथ - ८/२/१४९८
मैं ही हूँ । कुछ राजा तुम्हारे सच्चे शत्रु है । तुम ऐसा मत बोलना कि हमारे भय से राजा अदृश्य हुआ है । यदि तुममें शक्ति, पराक्रम हो तो प्रहार करो। जैसे इतना बोला वैसे उसी पल वो सब रूक गए ।
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हे गौतम! शीलालंकृत् पुरुष की बोली देवता को भी अलंघनीय है । वो निश्चल देहवाला बना । उसके बाद घस करते मूर्च्छा पाकर चेष्टा रहित होकर भूमि पर कुमार गिर पड़ा है गौतम ! उस अवसर पर कपटी और मायावी उस अधम राजाने सर्व भ्रमण करते लोगो को और सर्वत्र रहे धीर, समर्थ, भीरु, विचक्षण, मूरख, शूरवीर, कायर, चतुर, चाणक्य समान बुद्धिशाली, काफी प्रपंच से भरे संधि करवानेवाले, विग्रह करवानेवाले, चतुर राजसेवक आदि पुरुषो को कहा कि अरे ! इस राजधानी में से तुम जल्द हीरे, नीलरत्न, सूर्यकान्त, चन्द्रकान्तमणि, श्रेष्ठमणि और रत्न के ढेर, हेम अर्जुन तपनीय जांबुनद सुवर्ण आदि लाख भार प्रमाण ग्रहण करो । ज्यादा क्या कहे ? विशुद्ध बहु जातिवंत ऐसे मोती विदुम परवाला आदि लाखो खारि से भरे ( उस तरह का उस समय चलता पाली समान नाप विशेष) भंड़ार चतुरंग सेना को दे दे, खास करके वो सुगृहित सुबह में ग्रहण करने के लायक नामवाले ऐसे उस पुरुषसिंह विशुद्ध शीलवाले उत्तमकुमार के समाचार दो जिससे मैं शान्ति पा शकू । हे गौतम! उसके बाद राजा को प्रणाम करके वो राजसेवक पुरुष उतावले वेग से चपलता से पवन समान गति से चले वैसे उत्तम तरह के अश्व पर आरूढ़ होकर वन में, झाड़ी में, पर्वत की गुफा में, दुसरे एकान्त प्रदेश में चले गए । पलभर में राजधानी में पहुँचे । तब दाँई और बाँई भूजा के कर पल्लव से मस्तक के केश का लोच करते हुए राजकुमार दिखाई दिए । उसके सामने सुवर्ण के आभूषण और वस्त्र सजावट युक्त दश दिशाओ को प्रकाशित करते जयजयकार के मंगल शब्द उच्चारते, रजोहरण पकड़े हुए और हस्तकमल की रची अंजलि युक्त देवता उसे देखकर विस्मयित मनवाले लेपकर्म की बनी प्रतिमा की तरह स्थिर खड़े रहे ।
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इस समय हे गौतम ! हर्षपूर्ण हृदय और रोमांच कचुंक से आनन्दित बने शरीरवाले आकाश में रहे प्रवचन देवता ने 'नमो अरिहंतामं' ऐसा उच्चारण करके उस राजकुमार को इस प्रकार कहा कि
[१४९९-१५०३] जो केवल मुष्ठि के प्रहार से मेरु के टुकड़े कर देते है, पृथ्वी को पी जाते है, इन्द्र को स्वर्ग से बेदखल कर शकते है, पलभर में तीनो भुवन का भी शिव कल्याण करनेवाले होते है लेकिन ऐसा भी अक्षत शीलवाले की तुलना में नहीं आ शकता । वाकईं वो ही उत्पन्न हुआ है ऐसा माना जाता है, वो तीनो भुवन को वंदन करने के लायक है, वो पुरुष हो या स्त्री, कोइ भी हो जिस कुल में जन्म लेकर शील का खंडन नहीं करता । परम पवित्र सत्पुरुष से सेवित, समग्र पाप को नष्ट करनेवाला, सर्वोत्तम सुख का भंड़ार ऐसे सतरह तरह के शील का जय हो । ऐसा बोलकर हे गौतम! प्रवचन देवताओ ने कुमार पर पुष्प की वृष्टि की, फिर देवता कहने लगे कि
[१५०४-१५०६] जगत के अज्ञानी आत्मा आपने कर्म से कषाय या दुःखी हुए हो तो देव भाग्य या देवता को दोष देते है । अपनी आत्मा को गुण में स्थापित नहीं करता । दुःख के समय समता में रमण नहीं करता । सुख फिझूल या मुक्त में मिल जाए ऐसी तरकीब बनाते है । यह देव - भाग्य मध्यस्थ भाव में रहनेवाले, हरएक को एक नजर से देखनेवाले और