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महानिशीथ-८/२/१५११
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तैयार हुआ । हे गौतम ! वो यहाँ नरेन्द्रने दीक्षा अंगीकार की । दीक्षा लेने के बाद काफी घोर, वीर, उग्र, कष्टकारी, दुष्कर तप संयम अनुष्ठान क्रिया में रमणता करनेवाले ऐसे वो सभी किसी भी द्रव्य, क्षेत्र काल या भाव में ममत्त्व रखे बिना विहार करते थे । चक्रवर्ती इन्द्र आदि की ऋद्धि समुदाय के देह सुख में या सांसारिक सुख के काफी निस्पृहभाव रखनेवाले ऐसे उनका कुछ समय बीत गया । विहार करते करते सम्मेत पर्वत के शिखर के पास आया । उसके बाद उस कुमार महर्षिने राजकुमार बालिका नरेन्द्र श्रमणी को कहा कि - हे दुष्करकारिके ! तुम शान्त चित्त से सर्वभाव से अंतःकरणपूर्वक पूरे विशुद्ध शल्य रहित आलोचना जल्द से दो क्योंकि आज हम सर्व देह का त्याग करने के लिए कटिबद्ध लक्षवाले बने है । निःशल्य आलोचना, निन्दा, गर्हा, यथोक्त शुद्धाशयपूर्वक जिस प्रकार शास्त्र में भगवंत ने उपदेश दिया है उस अनुसार प्रायश्चित् करके शल्य का उद्धार करके कल्याण देखा है जिसमें ऐसी संलेखना की है । उसके बाद राजकुल बालिका नरेन्द्र श्रमणीने यथोक्त चिधि से सर्व आलोचना की । उसके बाद बाकी रही आलोचना उस महामुनि ने याद करवाइ कि - उस समय राजसभा में तुम बैठी थी तब गृहस्थ भाव में राग सहित और स्नेहाभिलाष से मुझे देखा था उस बात की आलोचना की । हे दुष्करकारिके ! तू कर । जिससे तुम्हारी सर्वोत्तम शुद्धि हो ।
उसके बाद उसने मन में खेद पाकर काफी चपल आशय एवं छल का घर ऐसी पाप स्त्री स्वभाव के कारण से इस साध्वी के समुदाय में हमेशा वास करनेवाली किसी राजा की पुत्री चक्षुकुशील या बूरी नजर करनेवाली है ऐसी मेरी ख्याति शायद हो जाए तो ? ऐसा सोचकर हे गौतम ! उस निर्भागिणी श्रमणीने कहा कि हे भगवंत ! इस कारण से मैंने तुमको रागवाली नजर से देखे न थे कि न तो मैं तुम्हारी अभिलाषा करती थी, लेकिन जिस तरह से तुम सवोत्तम रूप तारूण्य यौवन लावण्य कान्ति-सौभाग्यकला का समुदाय, विज्ञान ज्ञानातिशय आदि गुण की समृद्धि से अलंकृत हो, उस अनुसार विषय में निरभिलाषी और धैर्यवाले उस प्रकार हो कि नहीं, ऐसे तुम्हारा नाप तोल के लिए राग सहित अभिलाषावाली नजर जुड़ी थी, लेकिन रागाभिलाषा की इच्छा से नजर नहीं की थी । या फिर आज आलोचना हो । उसमें दुसरा क्या दोष है ? मुझे भी यह गुण करनेवाला होगा । तीर्थ में जाकर माया, छल करने से क्या फायदा ? कुमारमुनि सोचने लगा कि - काफी महा संवेग पाइ हुइ ऐसी स्त्री को सो सौनेया कोइ दे तो संसार में स्त्री का कितना चपल स्वभाव है वो समज शकते है या फिर उसके मनोगत भाव पहचानना काफी दुष्कर है । ऐसा चिन्तवन करके मुनिवरने कहा कि चपल समय मे किस तरह का छल पाया ? अहो इस दुर्जन चपल स्त्रीयों के चल-चपल अस्थिरचंचल स्वभाव । एक के लिए मानस स्थापन न करनेवाली, एक भी पल स्थिर मन न रखनेवाली, अहो दुष्ट जन्मवाली, अहो समग्र अकार्य करनेवाली, भाँडनेवाली, स्खलना पानेवाली, अहो समग्र अपयश, अपकीर्ति में वृद्धि करनेवाली, अहो पाप कर्म करने के अभिमानी आशयवाली, परलोक में अंधकार के भीतर घोर भयानक खुजली, ऊबलते कडाँइ में तेल में तलना, शामली वृक्ष, कुंभी में पकना आदि दुःख सहने पड़े ऐसी नारकी में जाना पड़ेगा । उसके भय बिना चंचल स्त्री होती है ।
इस तरह कुमार श्रमण ने मन में काफी खेद पाया । उसकी बात न अपनाते हुए धर्म में एक रसिक ऐसे कुमार मुनि अति प्रशान्त वदन से प्रशान्त मधुर अक्षर से धर्मदेशना करने