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महानिशीथ-७/-/१३८७
है, सर्व तप, संयम के अनुष्ठान का प्रधान अंग हो तो परम विशुद्धि स्वरूप प्रवचन के भी नवनीत और सारभूत स्थान बताया हो तो यह सभी प्रायश्चित् पद है ।
[१३८८] हे गौतम ! जितने यह सभी प्रायश्चित् है उसे इकट्ठा करके गिनती की जाए तो उतना प्रायश्चित् एक गच्छाधिपति को गच्छ के नायक को और साध्वी समुदाय की नायक प्रवर्तिनी को चार गुना प्रायश्चित् बताना क्योंकि उनको तो यह सब पता चला है । और जो यह परिचित और यह गच्छनायक प्रमाद करनेवाले हो तो दुसरे, बल, वीर्य होने के बावजूद ज्यादातर आगम में उद्यम करनेवाला हो तो भी वैसी धर्मश्रद्धा से न करे, लेकिन मंद उत्साह से उद्यम करनेवाला बने । भग्न परीणामवाले का किया गया कायक्लेश निरर्थक है । जिस वजह के लिए इस प्रकार है उसके लिए अचिन्त्य अनन्य निरनुबन्धवाले पुण्य के समुदायवाले तीर्थंकर भगवंत वैसी पुण्याइ भुगतते होने के बावजूद साधु को उस प्रकार करना उचित नहीं है । गच्छाधिपति आदि को सर्व तरह से दोष में प्रवृत्ति न करना । इस वजह से ऐसा कहा जाता है कि गच्छाधिपति आदि समुदाय के नायक को यह सभी प्रायश्चित् जितना इकट्ठा करके मिलाया जाए तो उससे चार गुना बताना ।
[१३८९] हे भगवंत ! जो गणी अप्रमादी होकर श्रुतानुसार यथोक्त विधानसह हमेशा रात-दिन गच्छ की देख-भाल न रखे तो उसे पारंचित प्रायश्चित् बताए ? हे गौतम ! गच्छ की देख-भाल न करे तो उसे पारंचित प्रायश्चित् कहना । हे भगवंत ! और फिर जो कोइ गणी सारे प्रमाद के आलम्बन से विप्रमुक्त हो । श्रुतानुसार हमेशा गच्छ की सारणादिक पूर्वक सँम्भालकर रखते हो, उसका किसी दुष्टशीलवाले या उस तरह का शिष्य सन्मार्ग का यथार्थ आचरण न करता हो तो वैसे गणी को प्रायश्चित् आता है क्या ? हे गौतम ! जुरुर वैसे गुरु को प्रायश्चित् प्राप्त होता है । हे भगवंत ! किस वजह से ? हे गौतम ! उसने शिष्य को गुणदोष से कसौटी लिए बिना प्रवज्या दी है उस वजह से, हे भगवंत ! क्या वैसे गणी को भी प्रायश्चित् दे शकते है ? हे गौतम ! इस तरह के गुण से युक्त गणी हो लेकिन जब इस तरह के पापशीलवाले गच्छ को त्रिविध त्रिविध से वोसिराके जो आत्महित की साधना नहीं करते, तब उन्हे संघ के बाहर नीकालना चाहिए । हे भगवंत ! जब गच्छ के नायक गणी गच्छ को त्रिविधे वोसिरावे तब उस गच्छ को आदरमान्य कर शकते है क्या ? यदि पश्चाताप करके संवेग पाकर यथोक्त प्रायश्चित् का सेवन करके दुसरे गच्छाधिपति के वास उपसंपदा पाकर सम्यग्मार्ग का अनुसरण करे तो उसका सम्मान करना अब यदि वो स्वच्छंदता से उसी तरह का बना रहेपश्चाताप प्रायश्चित् न करे, संवेग न पाए तो चतुर्विध श्रमणसंघ के बाहर किए उस गच्छ का आदर मत करना मत समजना ।
[१३९०] हे भगवंत ! जब शिष्य यथोक्त संयमक्रिया में व्यवहार करता हो तब कुछ कुगुरु उस अच्छे शिष्य के पास उनकी दीक्षा प्ररूपे तब शिष्य का कौन-सा कर्तव्य उचित माना जाता है ? हे गौतम ! घोर वीर तप का संयम करना । हे भगवंत ! किस तरह ? हे गौतम ! अन्य गच्छ में प्रवेश करके । हे भगवंत ! उसके सम्बन्धी स्वामीत्व की फारगति दिए बिना दुसरे गच्छ में प्रवेश नहीं पा शकते । तब क्या करे ? हे गौतम ! सर्व तरह से उसके सम्बन्धी स्वामीत्व मिट जाना चाहिए । हे भगवंत ! किस तरह से उसके सम्बन्धी स्वामीत्व सर्व तरह से साफ हो शकता है ? हे गौतम ! अक्षर में हे भगवंत् ! वो अक्षर कौन-से ? हे