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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
उपदेश दिया गया है । लेकिन केवल इतना ही प्रायश्चित् है ऐसा मत समजना । हे भगवंत ! क्या अप्रतिपाति महा अवधि मनःपर्यवज्ञान की छद्यस्थ वीताराग उन्हे समग्र आवश्यक का अनुष्ठान करने चाहिए । हे गौतम ! जरुर उन्हे करने चाहिए । केवल अकेले आवश्यक ही नहीं लेकिन एक साथ हमेशा सतत आवश्यकादि अनुष्ठान करने चाहिए । हे भगवंत ! किस तरह ? हे गौतम ! अचिन्त्य, बल, वीर्य, बुद्धि, ज्ञानातिशय और शक्ति के सामर्थ्य से करने चाहिए । हे भगवंत ! किस वजह से करने चाहिए ? हे गौतम ! भले ही उत्सूत्र उन्मार्ग का मुझसे प्रवर्तन न हो या हुआ हो तो, वैसा करके आवश्यक करना चाहिए।
[१४०१] हे भगवंत ! विशेष तरह का प्रायश्चित् क्यो नहीं बताते ? हे गौतम ! वर्षाकाले मार्ग में गमन, वसति का परिभोग करने के विषयक गच्छाचार की मर्यादा का उल्लंघन के विषयक, संघ आचार का अतिक्रमण, गुप्ति का भेद हुआ हो, साँत तरह की मांडली के धर्म का अतिक्रमण हुआ हो, अगीतार्थ के गच्छ में जाने से होनेवाले कुशील के साथ वंदन आहारादिक का व्यवहार किया हो, अविधि से प्रवज्या दी हो या बड़ी दीक्षा देने से लगे प्रायश्चित्-अनुचित-अपात्र को सूत्र अर्थ, तदुभय की प्रज्ञापना करने से लगे अतिचार, अज्ञान विषयक एक अक्षर देने से हुए दोष, देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, मासिक, चार मासिक, वार्षिक, आलोक सम्बन्धी, परलोक सम्बन्धी, निदान किया गया हो, मूलगुण की विराधना, उत्तरगुण की विराधना, जान-बुझकर या अनजाने में किया गया, बार-बार निर्दयता से दोष सेवन करे, प्रमाद अभिमान से दोष सेवन करे, आज्ञापूर्वक के अपवाद से दोष सेवन किए हो, महाव्रत, श्रमणधर्म, संयम, तप, नियम, आपत्तिकाल में रौद्र-आर्तध्यान होना, राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व विषयक, दुष्ट-क्रूर, परीणाम होने की वजह से पेदा हुआ ममत्व, मूर्छा, परिग्रह आरम्भ से होनेवाला पाप, समिति का अपालन, पराये की गैरमोजुदगी में उसकी नींदा करना, अमैत्रीभाव, संताप, उद्धेग, मानसिक अशान्ति से पेदा होनेवाला, मृषावाद बोलने से, दिए बिना चीज ग्रहण करने से उद्भवित, मैथुन, सेवन विषयक त्रिकरण योग पैकी खंड़ित पाप विषयक, परिग्रह करने से उद्भावित, रात्रिभोजन विषयक, मानसिक, वाचिक, कायिक, असंयम करण, करावण और अनुमति करने से उद्भवित् यावत् ज्ञानदर्शन, चारित्र के अतिचार से उद्भवित्, पापकर्म का प्रायश्चित्, ज्यादा क्या कहे ? जितने त्रिकाल चैत्यवंदना आदिक प्रायश्चित् के स्थान प्ररूपेल है । उतने विशेष से हे गौतम ! असंख्येय प्रमाण प्रज्ञापना की जाती है । इसलिए उसके अनुसार अच्छी तरह से धारणा करना कि हे गौतम ! प्रायश्चितसूत्र की संख्याता प्रमाण नियुक्ति, संग्रहणी, अनुयोग, द्वार, अक्षर, अनन्तापर्याय, बताए है, उपदेशेल है, कहे है, समजाए है, प्ररुपेल है, काल अभिग्रह रूप से यावत् आनुपूर्वी से या अनानुपूर्वी से यानि क्रमिक या क्रमरहित यथायोग्य गुणठाणा के लिए प्रायश्चित् है ।
[१४०२] हे भगवंत ! आपने बताए वैसे प्रायश्चित् की बहुलता है । इस प्रकार प्रायश्चित् का संघट्ट सम्बन्ध होता है, हे भगवंत ! इस तरह के प्रायश्चित् को ग्रहण करनेवाला कोइ हो कि जो आलोचना करके निन्दन करके गर्दा करके यावत् यथायोग्य तपोकर्म करके प्रायश्चित् का सेवन करके श्रामण्य को आराधे, प्रवचन की आराधना करे यावत् आत्महित के लिए उसे अंगीकार करके अपने कार्य की आराधना करे, स्वकार्य साधना करे ? हे गौतम ! चार तरह की आलोयणा समजना । नाम आलोचना, स्थापना आलोचना, द्रव्य आलोचना और