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महानिशीथ-६/-/१३४९
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सुन्दर योग मिलना काफी दुर्लभ है । इस संसार में जीव को पंचेन्द्रियपन, मानवपन, आर्यपन, उत्तम कुल में पेदा होना, साधु का समागम, शास्त्र का श्रवण, तीर्थंकर के वचन की श्रद्धा, आरोग्य, प्रवज्या आदि की प्राप्ति काफी दुर्लभ है । यह सभी दुर्लभ चीजो की प्राप्ति होने के बावजूद भी शूल, सर्प, झहर, विशुचिका, जल, शस्त्र, अग्नि, चक्री आदि की वजह से मुहूर्त्तमात्र में जीव मरके दुसरे देह में संक्रमण करता है ।
[१३५०-१३५४] तब तक आयु थोड़ा सा भी भुगतना बाकी है, जब तक अभी अल्प भी व्यवसाय कर शकते हो, तब तक में आत्महित की साधना कर लो । वरना पीछे से पश्चाताप करने का अवसर प्राप्त होगा । इन्द्रधनुष, बिजली देखते ही पल में अदृश्य हो वैसे संध्या के व्याधि और सपने समान यह देह है जो कच्चे मिट्टी के घड़े में भरे जल की तरह पलभर में पीगल जाता है । इतना समजकर ये जब तक इस तरह के क्षणभंगुर देह से छूटकारा न मिले तब तक उग्र कष्टकारी घोर तप का सेवन करो, आयु का क्रम कब तूटेगा उसका भरोसा नहीं है हे गौतम ! हजार साल तक अति विपुल प्रमाण में संयम का सेवन करनेवाले को भी अन्तिम वक्त पर कंडरिक की तरह किलष्टभाव शुद्ध नहीं होता । कुछ महात्मा जिस प्रकार शील और श्रामण्य ग्रहण किया हो उस प्रकार पुंडरिक महर्षि की तरह अल्पकाल में अपने कार्य को साधते है ।
[१३५५-१३५६] जन्म, जरा और मरण के दुःख से घेरे इस जीव को संसार में सुख नहीं है, इसलिए मोक्ष ही एकान्त उपदेश-ग्रहण करने के लायक है । हे गौतम ! सर्व तरह से और सर्व भाव से मोक्ष पाने के लिए मिला हुआ मानवभव सार्थक करना ।
(अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्र चूलिका-१-"एगंत निर्जरा")
[१३५७-१३५९] हे भगवंत ! इस दृष्टांत से पहले आप ने कहा था कि परिपाटी क्रम अनुसार (वो) प्रायश्चित् आप मुजे क्यों नहीं कहते ? हे गौतम ! यदि तुम उसका अवलंबन करोगे तो प्रायश्चित् वाकई तुम्हारी प्रकट धर्म सोच है और सुंदर सोचा माना जाता है । फिर गौतम ने पूछा तब भगवंत ने कहा कि जब तक देह में आत्मा में संदेह हो तब तक मिथ्यात्व होता है और उसका प्रायश्चित् नहीं होता ।
[१३६०-१३६१] जो आत्मा मिथ्यात्व से पराभवित हुआ हो, तीर्थंकर भगवंत के वचन को विपरीत बोले, उनके वचन का उल्लंघन करे, वैसा करनेवाले की प्रशंसा करे तो वो विपरीत बोलनेवाला घोर गाढ अंधकार और अज्ञानपूर्ण पाताल में नरक में प्रवेश करनेवाला होता है । लेकिन जो सुन्दर तरह से ऐसा सोचता है कि तीर्थंकर भगवंत खुद इस प्रकार कहते है और वो खुद उसके अनुसार व्यवहार करते है ।
[१३६२-१३६३] हे गौतम ऐसे जीव भी होते है कि जो जैसे तैसे प्रवज्या अंगीकार करके वैसी अविधि से धर्म का सेवन करते है कि जिससे संसार से मुक्त न हो शके । उस विधि के श्लोक कौन-से है ? हे गौतम ! वो विधि श्लोक इस प्रकार जानना ।
[१३६३-१३६५] चैत्यवंदन, प्रतिक्रमण, जीवादिक तत्त्व के सद्भाव की श्रद्धा, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय का दमन तीन गुप्ति, चार कषाय का निग्रह उन सब में सावध रहना, साधुपन की सामाचारी और क्रिया कलाप जानकर विश्वस्त होनेवाले, लगे हुए दोष की आलोचना