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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
अंतर्गत् रहे समजना । हे भगवंत ! ऐसा किस कारण से आप कहते हो ? हे गौतम ! सर्व आवश्यक के समय का । सावधानी से उपयोग रखनेवाले भिक्षु रौद्र-आर्तध्यान, राग, द्वेष, कषाय, गारख, ममत्व आदि कइ प्रमादवाले आलंबन के लिए सर्वभाव और भावान्तर से काफी मुक्त हो, केवल ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तपोकर्म, स्वाध्याय, ध्यान, सुन्दर धर्म के कार्य में अत्यन्तरूप से अपना बल, वीर्य, पराक्रम न छिपाते हुए और सम्यग् तरह से उसमें सर्वकरण से तन्मय हो जाता है । जब सुन्दर, धर्म, के आवश्यक के लिए स्मणतावाला बने, तब आश्रवद्वार को अच्छी तरह से बँध करनेवाला हो. यानि कर्म आने के कारण को रोकनेवाला बने, तब अपने जीव वीर्य से अनादि भव के इकट्ठे किए गए अनिष्ट दुष्ट आठ कर्म के समूह को एकान्त में नष्ट करने के लिए कटिबद्ध लक्षणवाला, कर्मपूर्वक योगनिरोध करके जलाए हुए समग्र कर्मवाला, जन्म जरा, मरण स्वरूप चार गतिवाले संसार पाश बँधन से विमुक्त, सर्व दुःख से मुक्त होने से तीन लोक के शिखर स्थान रूप सिद्धिशिला पर बिराजे । इस वजह से ऐसा कहा है कि इस प्रथम पद में बाकी प्रायश्चित् के पद समाविष्ट है।
[१३८०] हे भगवंत ! वो आवश्यक कौन-से है । चैत्यवंदन आदि । हे भगवंत ! किस आवश्यक में बार-बार प्रमाद दोष से समय का, समय का उल्लंघन या अनुपयोगरूप से या प्रमाद से अविधि से अनुष्ठान किया जाए या तो यथोक्त काल से विधि से सम्यग् तरह से चैत्यवंदन आदि न करे, तैयार न हो, प्रस्थान न करे, निष्पन्न न हो, वो देर से करे या करे ही नहीं या प्रमाद करे तो वैसा करनेवाले को कितना प्रायश्चित् कहे ? हे गौतम ! जो भिक्षु या भिक्षुणी यतनावाले भूतकाल की पाप की निंदा भावि में अतिचार न करनेवाले, वर्तमान में अकरणीय पापकर्म न करनेवाले. वर्तमान में अकरणीय पापकर्म का त्याग करनेवाले सर्वदोष रहित बने पाप-कर्म के पच्चक्खाण युक्त दीक्षा दिन से लेकर रोज जावज्जीव पर्यन्त अभिग्रह को ग्रहण करनेवाले काफी श्रद्धावाले भक्तिपूर्ण दिलवाले या यथोक्त विधि से सूत्र और अर्थ को याद करते हुए दुसरे किसी में मन न लगाते हुए, एकाग्र चित्तवाले उसके ही अर्थ में मन की स्थिरता करनेवाला, शुभ अध्यवसायवाले, स्तवन और स्तुति से कहने के लायक तीनों समय चैत्य को वंदन न करे, तो एक बार के प्रायश्चित् का उपवास कहना, दुसरी बार उसी कारण के लिए छेद प्रायश्चित् देना । तीसरी बार उपस्थापना, अविधि से चैत्य को वंदन करे तो दुसरों को अश्रद्धा पेदा होती है । इसलिए बड़ा प्रायश्चित् कहा है ।
और फिर जो हरी वनस्पति या बीज, पुष्प, फूल, पूजा के लिए महिमा के लिए शोभायमान के लिए संघट्ट करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे, छेदन करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो इन सभी स्थानक में उपस्थापना, खमण-उपवास चोथ भक्त, आयंबिल, एकासणु, निवि गाढ, अगाढ भेद से क्रमिक समजना।
[१३८१] यदि कोइ चैत्य को वंदन करता हो, वैसी स्तुति करता हो या पाँच तरह के स्वाध्याय करता हो उसे विघ्न करे या अंतराय करे या करवाए अगर दुसरा अंतराय करता हो तो उसे अच्छा माने अनुमोदना करे तो उसे उस स्थानक में पाँच उपवास, छठ्ठ कारणवाले को एकासणु और निष्कारणीक को संवत्सर तक वंदन न करना । यावत् “पारंचियं" करके उपस्थापना करना ।
[१३८२] जो प्रतिक्रमण न करे उसे उपस्थापना का प्रायश्चित् देना । बैठे-बैठे प्रतिक्रमण