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महानिशीथ-६/-/१२३३
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[१२३३-१२३९] उस प्रकार लक्ष्मणा साध्वी का जीव हे गौतम ! लम्बे अरसे तक कठिन घोर दुःख भुगतते हुए चार गति रूप संसार में नारकी तिर्यंच और कुमानवपन में भ्रमण करके फिर से यहाँ श्रेणीक राजा का जीव जो आनेवाली चौबीसी में पद्मनाभ नाम के पहले तीर्थंकर होंगे उनके तीर्थ में कुब्जिका के रूप में पेदा होगा । शरीरसीबी की खदान समान गाँव में या अपनी माँ को देखने से आनन्द देनेवाली नहीं होगी उस वक्त सब लोग यह उद्धेग करवानेवाली है, ऐसा सोचकर मेशगेरू के लेप का शरीर पर विलेपन करके गधे पर स्वार होकर भ्रमण करवाएंगे और फिर उसके शरीर पर दोनों ओर पंछी के पीछे लगाएंगे, खोखरे शब्दवाला डिडिम के आगे बजाएंगे एक गाँव में घुमाकर गाँव में से दुसरी जगह जाने के लिए नीकाल देंगे और फिर से गाँव में प्रवेश नहीं कर शकेंगे । तब अरण्य में वास करते हुए वो कंद-फल का आहार करती रहेगी । नाभि के बीच में झहरीले छूडूंदर के इँसने से दर्द से परेशान होनेवाली वो पूरे शरीर पर गुमड़, दराज, खाज आदि चमड़ी की व्याधि पेदा होगी । उसे खुजलाते हुए वो घोर दुःसह, दुःख का अहसास करेगी ।
[१२४०-१२४१] वेदना भुगतती होगी तब पद्यनाभ तीर्थंकर भगवंत वहाँ समवसरण करेंगे और वो उनका दर्शन करेंगे इसलिए तुरन्त ही उसके और दुसरे उस देश में रहे भव्य जीव
और नारी कि जिसके शरीर भी व्याधि और वेदना से व्याप्त होंगे वो सभी समुदाय के व्याधि तीर्थंकर भगवंत के दर्शन से दूर होंगे । उसके साथ लक्ष्मणा साध्वी का जीव जो कुब्जिका है वो घोर तप का सेवन करके दुःख का अंत पाएंगे ।
[१२४२] हे गौतम ! यह वो लक्ष्मणा आर्या है कि जिसने अगीतार्थपन के दोष से अल्प कलुषता युक्त चित्त के दुःख की परम्परा पाई ।
[१२४३-१२४४] हे गौतम ! जिस प्रकार यह लक्ष्मणा आर्या ने दुःख परम्परा पाई उसके अनुसार कलुषित चित्तवाले अनन्त अगीतार्थ दुःख की परम्परा पाने के लिए यह समजकर सर्व भाव से सर्वथा गीतार्थ होना या गीतार्थ के साथ उनकी आज्ञा में रहना और काफी शुद्ध सनिर्मल विमल शल्य रहित निष्कलष मनवाला होना. उस प्रकार भगवंत के पास से श्रवण किया हुआ कहता हूँ ।
[१२४५-१२५०] जिनके चरणकमल प्रणाम करते हुए देव और अनुसरते मस्तक के मुकुट से संघट्ट हुए है ऐसे हे जगद्गुरु ! जगत के नाथ, धर्म तीर्थंकर, भूत और भावि को पहचाननेवाले, जिन्होंने तपस्या से समग्र कर्म के अंश जला दिए है ऐसे, कामदेव शत्रु का विदारण करनेवाले, चार कषाय के समूह का अन्त करनेवाले, जगत के सर्व जीव के प्रति वात्सल्यवाले, घोर अंधकार रूप मिथ्यात्व रात्रि के गहरे अंधेरे का नाश करनेवाले, लोकोलोक को केवल ज्ञान से प्रकाशित करनेवाले, मोहशत्रु को महात करनेवाले, जिन्होंने राग, द्वेष और मोह समान चोर का दूर से त्याग किया है, सौ चन्द्र से भी ज्यादा सौम्य, सुख देनेवाला, अतुलबल पराक्रम और प्रभाववाले, तीन भुवन में अजोड़ महायशवाले, निरूपम रूपवाली, जिनकी तुलना में कोई न आ शके वैसे, शाश्वत रूप मोक्ष देनेवाले सर्व लक्षण से सम्पूर्ण, त्रिभुवन की लक्ष्मी से विभूषित हे भगवंत ! क्रम पूर्वक - परिपाटी से जो कुछ किया जाए तो कार्य की प्राप्ति होती है । लेकिन अकस्मात् अनवसर से भेड़ के दूध की तरह क्रम रहित कार्य की प्राप्ति कैसे हो शकती है ?