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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[१११२-१११६] या तो सचमुच मैं मूंढ पापकर्म नराधम हूँ भले मैं वैसा नहीं करता लेकिन दुसरे लोग तो वैसा व्यवहार करते है । और फिर अनन्त ज्ञानी सर्व भगवंत ने यह हकीकत प्ररूपी है । जो कोई उनके वचन के खिलाफ बात करे तो उसका अर्थ टिक नहीं शकता । इसलिए अब मैं इसका घोर अति दुष्कर उत्तम तरह का प्रायश्चित् जल्द अति शीघ्रतर समय में करूँगा कि जितने में मेरी मौत न हो । आशातना करने से मैं ऐसा पाप किया है कि देवताई सौ साल का ईकट्ठा किया हुआ पुण्य भी उससे नष्ट होता है । अब वो प्रायश्चित् करने के लिए तैयार हुआ है । और अपनी मति कल्पना से उस तरह का महा घोर प्रायश्चित् करके प्रत्येक बुद्ध के पास फिर से गया ।
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[१११७-११२३] वहाँ भी सूत्र की व्याख्या श्रवण करते करते वो ही अधिकार फिर आया कि, 'पृथ्वी आदि का समारम्भ साधु त्रिविध त्रिविध से वर्जन करे, काफी मूढ ऐसा वो इश्वर साधु मूरख बनकर चिन्तवन करने लगा कि इस जगत में कौन उस पृथ्वीकायदिक का समारम्भ नहीं करता ? खुद ही तो पृथ्वीकाय पर बैठे है, अग्नि से पकाया हुआ आहार खाते है और वो सब बीज-धान्य में से पेदा होता है । दुसरा पानी बिना एक पल भी कैसे जी शकेंगे ? तो वाकई यह प्रत्यक्ष ही उल्टी हकीकत दिखाई देती है । मैं उनके पास आया लेकिन इस बात में कोई भरोसा नहीं करेंगे । तो वो भले यहाँ रहे, इससे तो यह गणधर भगवंत काफी उत्तम है । या तो यहाँ वो कोइ भी मेरा कहा नहीं करेंगे । इस तरह का धर्म भी किस वजह से कहते होंगे । यदि अति कड़कड़वा कठिन धर्म होगा तो फिर अब मत सुनना । [११२४-११३८] या उनको एक ओर रख दो । मैं खुद ही सुख से हो शके और सब लोग कर शके ऐसा धर्म बताऊँगा । यह जो कड़कड़-कठिन धर्म करने का समय नहीं है । ऐसा जितने में चिन्तवन करते है उतने में तो उन धड़धड़ आवाज करनेवाली बिजली गिर पड़ी । हे गौतम! वो वहाँ मरकर साँतवी नरक पृथ्वी में पेदा हुआ । शासन श्रमणपन श्रुतज्ञान के संसर्ग के प्रत्यनीकपन की वजह से इश्वर लम्बे अरसे तक नरक में दुःख महसूस करके यहाँ आकर सागर में महामत्स्य होकर फिर से साँतवी नारकी में तैंतीस सागरोपम के लम्बे अरसे तक दुःख सहकर वैसे भयानक दुःख भुगतकर यहाँ आया इश्वर का जीव तिर्यंच ऐसे पंछी में कौए के रूप में पेदा हुआ । वहाँ से फिर पहली नारकी में जाकर आयु पूर्ण करके यहाँ दुष्ट श्वान के रूप में पेदा होकर फिर से पहली नारकी में गया । वहाँ से नीकलकर शेर के रूप में फिर से मरके चौथी में जाकर यहाँ आया । यहाँ से भी नरक में जाकर उस इश्वर का जीव कुम्हार के रूप में पेदा हुआ । वहाँ कुष्ठी होकर काफी दुःखी, कृमि ने खाया हुआ पचास साल तक पराधीनपन से वैसा पारावार दुःख सहकर अकाम निर्जरा की, वहाँ से देवभव में पैदा होकर वहाँ से यहाँ राजा बनकर साँतवी नारकी में गया । उस प्रकार इश्वर का जीव स्वकल्पना करने की वजह से नारक और तिर्यंच गति में और कुत्सित - अधम मानवगति में लम्बे अरसे तक भव भ्रमण करके घोर दुःख भुगतकर काफी दुःखी होनेवाला अभी गोशाकलरूप हुआ है । और वो ही इस इश्वर का जीव है । इसलिए परमार्थ समजने के लिए सारासार से परिपूर्ण ऐसे शास्त्र के भाव को जल्द पहचानकर गीतार्थ मुनि बनना ।
[११३९-११४०] सारासार को पहचाने बिना अगीतार्थपन के दोष से रज्जुआर्या ने केवल एक वचन से जो पाप का उपार्जन किया, उस पाप से उस बेचारी को नारकी - तिर्यंच