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महानिशीथ-६/-/१०९१
की विडम्बना करनेवाले पिता हो तो भी उसे शत्रु समान मानना । भड़भड़-अग्नि में प्रवेश करना अच्छा है लेकिन सूक्ष्म भी नियम की विराधना करनी अच्छी नहीं है । सुविशुद्ध नियमयुक्त कर्मवाली मौत सुन्दर है लेकिन नियम तोड़कर जीना अच्छा नहीं है ।
[१०९२-१०९४हे गौतम ! किसी दुसरी चौबीस के पहले तीर्थंकर भगवंत का जब विधिवत् निर्वाण हुआ तब मनोहर निर्वाण महोत्सव प्रवर्तता था और सुन्दर रूपवाले देव और असुर नीचे उतरते थे और ऊपर चड़ते थे । तब पास में रहनेवाले लोग यह देखकर सोचने लगे कि अरे ! आज मानव लोक में ताज्जुब देखते है । किसी वक्त भी कहीं भी ऐसी इन्द्रजाल-सपना देखने में नहीं आया ।
[१०९५-११०२] ऐसा सोचते-सोचते एक मानव को पूर्वभव का जाति स्मरण ज्ञान हुआ इसलिए पलभर मूर्छित हुआ लेकिन फिर वायरे से आश्वासन मिला । भान में आने के बाद थरथर काँपने लगा और लम्बे अरसे तक अपनी आत्मा की काफी नींदा करने लगा । तुरन्त ही मुनिपन अंगीकार करने के लिए उद्यत हआ । उसके बाद वो महायशवाला पंचमुष्टिक लोच करा जितने में शुरु करता है उतने में देवता ने विनयपूर्वक उसे रजोहरण अर्पण किया। उसके क्टकारी उग्रतप और चारित्र देखकर और लोगों को उसकी पूजा करते देखकर इश्वर जितने में वहाँ आकर उसे पूछने लगा कि तुम्हें किसने दीक्षा दी? कहाँ पेदा हुए हो । तुम्हारा कुल कौन-सा है ? किसके चरणकमल में अतिशयवाले सूत्र और मतलब का तुमने अध्ययन किया ? वो हर एक बुद्ध उसे जितने में सर्प जाति, कुल, दीक्षा, सूत्र, अर्थ आदि जिस प्रकार प्राप्त किए वो कहते थे उतने में वो सर्व हकीकत सुनकर निर्भागी वो इस प्रकार चिन्तवन करने लगा कि यह अलग है, यह अनार्य लोग दिखावे से ठगते है तो जैसा यह बोलते है उसी तरह का वो जिनवर भी होगा । इस विषय में कुछ सोचने का नहीं है । ऐसा मानकर दीर्धकाल तक मौन खड़ा रहा ।
[११०३-११०४] या फिर ऐसा नहीं देव और दानव से प्रणाम किए गए वो भगवंत यदि मेरे मन में रहे संशय का छेदन करे तो मुजे यकीन हो । उतने में फिर चिन्तवन किया कि जो होना है वो हो, मुजे यहाँ सोचने का क्या प्रयोजन है । मैं तो सर्व दुःख को नष्ट करनेवाली प्रवज्या को अभिनन्दन देता हूँ । यानि उसे ग्रहण करने की इच्छा रखता हुं ।
[११०५-११०७] उतने में जिनेश्वर के पास जाने के लिए नीकला । लेकिन जिनेश्वर को न देखा । इसलिए गणधर ने भगवंत के पास जाने के लिए प्रयाण किया । जिनेश्वर भगवंत ने बताए हुए सूत्र और मतलब की प्ररूपणा गणधर महाराजा करते है । जब यहाँ गणधर महाराजा व्याख्यान करते थे तब उसमें यह आलापक आया कि. 'एक ही पथ्वीकाय जीव सर्वत्र उपद्रव पाते है । वो उसकी रक्षा करने के लिए कौन समर्थ हो शकता है ?
[११०८-११११] इस विषय में इस महायशवाले अपने आत्मा की लघुता करते है । इस समग्र लोक में यह बात सिद्ध करने के उचित नहीं है । ऐसी बात यह क्यों प्ररूपते होंगे? यह उनका व्याख्यान प्रकटपन से काफी कान में कड़कड़ करनेवाला है । निष्कारण गले को शोषित करता है । उसके अलावा कोई फायदा नहीं है । ऐसा व्यवहार कौन कर शकेगा ? इसलिए यह उपदेश छोड़कर सामान्य या किसी मध्यम तरह के धर्म का उपदेश करना चाहिए । जिससे हमारे पास आनेवाले लोग उभगी (ऊँब) न जाए ।