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महानिशीथ-६/-/११४४
[११४४-११४६] अगीतार्थपन के दोष से भाव शुद्धि प्राप्त नहीं होती, भाव विशुद्धि बिना मुनि कलुषता युक्त मनवाला होता है । दिल में काफी कम छोटे प्रमाण में भी यदि कलुषता, मलीनता, शल्य, माया रहे हो तो अगीतार्थपन के दोष से जैसे लक्ष्मणा देवी साध्वी ने दुःख की परम्परा खड़ी की, वैसे अगीतार्थपन के दोष से भव की और दुःख की परम्परा खड़ी की, इसलिए समजदार पुरुष को सर्वथा भाव से सर्वथा वो समजकर गीतार्थ बनकर मन को कलुषता रहित बनाना चाहिए ।
[११४७-११५६] हे भगवंत ! लक्ष्मणा आर्या जो अगीतार्थ और कलुषतावाली थी और उसकी वजह से दुःख परम्परा पाई वो मैं नहीं जानता । हे गौतम ! पाँच भरत और पाँच ऐरावत् क्षेत्र के लिए उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सर्व काल में एक-एक संसार में यह अतिध्रुव चीज है । जगत की यह स्थिति हमेशा टिकनेवाली है । हे गौतम ! मैं हूँ उस तरह साँत हाथ के प्रमाणवाली कायावाले, देव और दानव से प्रणाम करे, वैसे ही अन्तिम तीर्थंकर थे । उस वक्त वहाँ जम्बुदाडिम नाम का राजा था । कई पुत्रवाली सरिता नाम की भार्या थी। एक भी पुत्री न होने से किसी वक्त राजा सहित पुत्री पाने के लिए देव की, कुल देवता की, चन्द्र-सूरज ग्रह की काफी मानता की थी । कालक्रम से कमलपत्र समान नैनवाली लड़की पेदा हुई । लक्ष्मणा देवी ऐसे नाम स्थापन किया । अब किसी वक्त लक्ष्मणा देवी पुत्री यौवनवय पाया तब स्वयंवर रचा । उसमें नयन को आनन्द देनेवाला, कला के घर समान, उत्तम वर के साथ विवाह किया । शादी के बाद तुरन्त ही उसका भार मर गया । इसलिए वो एकदम मूर्छित हो गइ, बेहोश हो गई । काँपते हुए उसे स्वजन परिवार ने वींझन के पवन से मुश्किल से सभान बनाया । तब हा हा ऐसे आक्रंदन करके छाती-मस्तक कूटने लगी । वो अपनेआप को दश दिशा में मारती, कूटती, पीटती रेंगने लगी । बन्धुवर्ग ने उसे आश्वासन देकर. समजाया तब कुछ दिन के बाद रूदन बन्ध करके शान्त हुई।
[११५६-११६३] किसी वक्त भव्य जीव रूपी कमलपन को विकसित करनेवाले केवलज्ञान समान तीर्थंकर भगवंत वहाँ आए और उद्यान में समवसरे, अपने अंतःपुर, सेना और वाहन सर्व ऋद्धि सहित राजा उन्हें भक्ति से वंदन करने के लिए गया । धर्म श्रवण करके वहाँ अंतःपुर, पुत्र और पुत्री सहित दीक्षा अंगीकार की । शुभ परीणामवाले मूर्छा रहित उग्र कष्टकारी घोर दुष्कर तप करने लगा । किसी वक्त सबको गणी के योग में प्रवेश करवाया । लक्ष्मणा देवी को अस्वाध्याय की वजह से अनुष्ठान क्रिया करने के लिए न भेजा | उपाश्रय में एकान्त में बैठी लक्ष्मणा देवी साध्वी ने क्रीड़ा करते हुए युगल को देखकर चिन्तवन किया कि इनका जीवन सफल है । इस चीड़िया को छूनेवाली दुसरी चीडिया कि जो अपने प्रियतम को आलिंगन देकर परम आनन्द सुख देती है ।
[११६४-११६९] यहाँ तीर्थंकर भगवंत ने पुरुष और स्त्री रतिक्रीड़ा करते है तो उनको देखना हमने क्यों छोड़ दिया होगा ? वो तो वेदना दुःख रहित होने से दुसरों का सुख नहीं पहचान शकते । अग्नि जलाने के स्वभाववाला होने के बावजूद भी आँख से उसे देखे तो देखनेवाले को नहीं जलाता । या तो ना, ना, ना, ना भगवंत ने जो आज्ञा की है वो यथार्थ ही है । वो विपरीत आड़श करेंगे ही नहीं । क्रीड़ा करते हुए पंछी युगल को देखकर मेरा मन क्षोभित हुआ है । मुझमें पुरुष की अभिलाषा प्रकट हुई है कि मैं उसके साथ मैथुन