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महानिशीथ-६/-/१०११
से प्रवृत्ति न करनी । इस प्रकार भगवंत के मुख से सुना हुआ मैं तुम्हें कहता हूँ।
[१०१२-१०१५] हे भगवंत ! अकार्य करके अगर अतिचार सेवन करके यदि किसी प्रायश्चित् का सेवन करे उससे अच्छा जो अकार्य न करे वो ज्यादा सुन्दर है ? हे गौतम ! अकार्य सेवन करके फिर मैं प्रायश्चित् सेवन करके शुद्धि कर लूँगा । उस प्रकार मन से भी वो वचन धारण करके रखना उचित नहीं है । जो कोई ऐसे वचन, सुनकर उसकी श्रद्धा करता है । या उसके अनुसार व्यवहार करता है वो सर्व शिलभ्रष्ट का सार्थवाह समजना । हे गौतम ! शायद उस प्राण संदेह के वजह समान ऐसा कठिन भी प्रायश्चित् करे तो भी जैसे तीतली दीए की शीखा में प्रवेश करती है, तो उसकी मौत होती है, वैसे आज्ञाभंग करने के समान उस दीपशिखा में प्रवेश करके कईं मरणवाला संसार उपार्जन होता है ।
[१०१६-१०१९] हे भगवंत ! जो कोई भी मानव अपने में जो कोई बल, वीर्य पुरुषकार पराक्रम हो उसे छिपाकर तप सेवन करे तो उसका क्या प्रायश्चित् आए ? हे गौतम! अशठ भाववाले उसे यह प्रायश्चित् हो शकता है । क्योकि वैरी का सामर्थ्य जानकर अपनी ताकत होने के बावजूद भी उसने उसकी उपेक्षा की है जो अपना बल वीर्य, सत्त्व पुरुषकार छिपाता है, वो शठ शीलवाला नराधम दुगुना प्रायश्चिती बनता है । नीच गोत्र, नारकी में घोर उत्कृष्ट हालातवाला दुःख भुगतते, तिर्यंच गति में जाए और उसके बाद चार गति में वो भ्रमण करनेवाला होता है ।
[१०२०-१०२४] हे भगवंत ! बड़ा पापकर्म वेदकर खपाया जा शकता है । क्योंकि कर्म भुगते बिना उसका छूटकारा नहीं किया जा शकता । तो वहाँ प्रायश्चित् करने से क्या फायदा ? हे गौतम ! कईं क्रोड़ साल से इकट्ठे किए गए पाप कर्म सूरज से जैसे तुषार-हीम पीगल जाए वैसे प्रायश्चित् समान सूरज के स्पर्श से पीगल जाता है । घनघोर अंधकारवाली रात हो लेकिन सूरज के उदय से अंधकार चला जाता है । वैसे प्रायश्चित् समान सूरज के उदय से अंधकार समान पापकर्म चले जाते है । लेकिन प्रायश्चित सेवन करनेवाले ने जुरुर इतना खयाल रखना चाहिए कि जिस प्रकार शास्त्र में बताया हो उस प्रकार अपने बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम को छिपाए बिना अशठ भाव से पापशल्य का उद्धार करना चाहिए । दुसरा सर्वथा इस प्रकार प्रायश्चित् करके वो भी जो इस प्रकार नहीं बोलता, उन्हें शल्य का थोड़ा भी शयाद उद्धार किया हो तो भी वो लम्बे अरसे तक चार गति में भ्रमण करता है ।
१०२५-१०२७] हे भगवंत ! किसके पास आलोचना करनी चाहिए । प्रायश्चित् कौन दे शकता है ? प्रायश्चित् किसे दे शकते है ? हे गौतम ! सौ योजन दूर जाकर केवली के पास शुद्ध भाव से आलोचना निवेदन कर शके । केवलज्ञानी की कमी में चार ज्ञानी के पास, उसकी कमी में अवधिज्ञानी, उसकी कमी में मति श्रुतज्ञानी के पास, जिसके ज्ञात अतिशय ज्यादा निर्मल हो, उसको आलोचना दी जाती है ।
[१०२८-१०३०] जो गुरु महाराज उत्सर्ग मार्ग की प्ररूपणा करते हो, उत्सर्ग के मार्ग में प्रयाण करते हो, उत्सर्ग मार्ग की रुचि करते हो, सर्व भाव में उत्सर्ग का वर्ताव करता हो, उपशान्त स्वभाववाला हो, इन्द्रिय का दमन करनेवाला हो, संयमी हो, तपस्वी हो, समिति गुप्ति की प्रधानतावाले दृढ़ चारित्र का पालन करनेवाला हो, असठ भाववाला हो, वैसा गीतार्थ गुरु के पास अपने अपराध निवेदन करना, प्रक करना और प्रायश्चित् अंगीकार करना । खुद