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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
समय दो पक्ष में विवाद पेदा हुआ । उनमें किसी वैसे आगम के माहितगार कुशल पुरुष नहीं है कि जो इस विषय में युक्त या अयुक्त क्या है उसके बारे में सोच शके या प्रमाणपूर्वक विवाद को समा शके । और उसमें से एक ऐसा कहे कि इस विषय के जानकार कुछ आचार्य कुछ स्थान पर रहे है । दुसरा फिर दुसरे का नाम बताए, ऐसे विवाद चलते-चलते एक ने कहा कि यहाँ ज्यादा प्रलाप करने से क्या ? हम सबको इस विषय में सावधाचार्य जो निर्णय दे वो प्रमाणभूत है । दुसरे सामने के पक्षवाले ने भी उस बात को अपनाया और कहा कि उन्हें जल्द बुलाओ।
हे गौतम ! उन्हें बुलाए यानि दूर देश से वो सतत अप्रतिबद्ध विहार करते करते साँत महिने मे आ पहुँचे । बीच में एक आर्या को उसके दर्शन हुए । कष्टकारी उग्रतप और चारित्र से शोषित शरीरवाले, जिसके शरीर में केवल चमड़ी और हड्डी बाकी रहे है, तप के तेज से अति दीपायमान ऐसे उस सावधाचार्य को देखकर काफी विस्मय पाइ हुइ उस पल में वितर्क करने लगी कि क्या यह महानुभाव वो अरिहंत है कि यह मूर्तिमान धर्म है । ज्यादा क्या सोचे ? देवेन्द्र को भी वंदनीय है । उसके चरण युगल मुजे वंदन करने के लायक है...ऐसा चिन्तवन करके भक्तिपूर्ण हृदयवाली उनकी ओर प्रदक्षिणा देकर मस्तक से पाँव का संघट्टा हो जाए वैसे अचानक सहसा वो सावधाचार्य को प्रणाम करते और पाँव का संघट्टा होते देखा । किसी समय वो आचार्य उनको जिस तरह जगत के गुरु तीर्थंकर भगवंत ने उपदेश दिया है । उस प्रकार गुरु के उपदेश के अनुसार क्रमानुसार यथास्थित सूत्र और अर्थ की प्ररूपणा करते है, उस प्रकार वो उसकी सद्दहणा करते है । एक दिन है गौतम ! उस प्रकार कहा कि म्यारह अंग; चौदह पूर्व, बारह अंग रूप श्रुतज्ञान का सार, रहस्य हो, नवनीत हो तो समग्र पाप का परिहार और आँठ कर्म का समजानेवाले महानिशीथ श्रुत स्कंध का पाँचवा अध्ययन है । हे गौतम ! इस अध्ययन में जितने में विवेचन करते थे उतने में यह गाथा आई ।
[८४१] "जिस गच्छ में वैसी कारण पेदा हो और वस्त्र के आंतरा सहित हस्त से स्त्री के हाथ का स्पर्श करने में और अरिहंत भी खुद कर स्पर्श करे तो उस गच्छ को मुलगुण रहित समजना ।
[८४२] तब अपनी शंकावाला उन्होंने सोचा कि यदि यहाँ मैं यथार्थ प्ररूपणा करूँगा तो उस समय वंदना करती उस आर्या ने अपने मस्तक से मेरे चरणाग्र का स्पर्श किया था, वो सब इस चैत्यवासी ने मुजे देखा था । तो जिस तरह मेरा सावधाचार्य नाम बना है, उस प्रकार दुसरा भी वैसा कुछ अवहेलना करनेवाला नाम रख देंगे जिससे सर्व लोक में मै अपूज्य बनूँगा । तो अब मैं सूत्र और अर्थ अन्यथा प्रखण करूँ । लेकिन ऐसा करने में महा आशातना होगी तो अब मुजे क्या करना ? तो इस गाथा की प्ररूपणा करे कि न करे ? अगर अलग-अलग रूप से प्ररूपणा करे ? या अरेरे यह युक्त नहीं है । दोनों तरह से काफी गर्हणीय है । आत्महित में रहे, विरुद्ध प्ररूपणा करना वो उचित नहीं है । क्योंकि शास्त्र का यह अभिप्राय है कि जो भिक्षु बारह अंग रूप श्रुतवचन को बार-बार चूक जाए, स्खलना पाने में प्रमाद करे । शंकादिक के भय से एक भी पद-अक्षर, बँद, मात्रा को अन्यथा रूप से खिलाफ प्ररूपणा करे, संदेहवाले सूत्र और अर्थ की व्याख्या करे । अविधि से अनुचित को वाचना दे, वो भिक्षु अनन्त संसारी होता है । तो अब यहाँ मैं क्या करूँ ? जो होना है वो हो ।