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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
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आम्भ से सर्वथा मुक्त और अपने देह पर भी ममत्वभाव रहित हो, मुनिपन के आचार का आचरण करके एक क्षेत्र में भी गीतार्थ सौ साल तक रहे तो वो आराधक है ।
[७६७] जिसमें भोजन के समय साधु की मांडली में पात्र स्थापन करनेवाली हो तो वो स्त्री राज्य है, लेकिन वो गच्छ नहीं है ।।
[७६८] जिस गच्छ में रात को सौ हाथ ऊपर साध्वी को जाना हो तो चार से कम नहीं । उत्कृष्ट से दश ऐसे साध्वी न करे तो वो गच्छ नहीं है ।
[७६९-७७०]अपवाद से और कारण हो तो चार से कम साध्वी एक गाऊँ भी जिसमें चलते हो वो गच्छ किस तरह का ? हे गौतम जिस गच्छ में आँठ से कम साधु मार्ग में साध्वी के साथ अपवाद से भी चले तो उस गच्छ में कौन-सी मर्यादा ?
[७७१] जिसमें ६३ भेदवाले चक्षुरागाग्नि की उदीरणा हो उस तरह से साधु-साध्वी की ओर दृष्टि करे तो गच्छ के लिए कौन-सी मर्यादा सँभाली जाए ?
[७७२] जिसमें आर्या के वहोरे हुए पात्रा दंड आदि तरह-तरह के उपकरण का साधु परिभोग करे हे गौतम ! उसे गच्छ कैसे कहे ?
[७७३] अति दुर्लभ बल-बुद्धि वृद्धि करनेवाले शरीर की पुष्टि करनेवाले औषध साध्वी ने पाए हो और साधु उसका इस्तेमाल करे तो उस गच्छ में कैसे मर्यादा रहे ?
[७७४] शशक, भसक की बहन सुकुमालिका की गति सुनकर श्रेयार्थी धार्मिक पुरुष को सहज भी (मोहनीयकर्म का) भरोसा मत करना ।
[७७५] दृढ़ चारित्रवाले गुण समुह ऐसे आचार्य और गच्छ के वडील के सिवा जो किसी साधु या साध्वी को हुकुम करे तो वो गच्छ नहीं है ।
[७७६] मेघ गर्जना, दौड़ते अश्व के उदर में पेदा हुए वायु जिसे कुहुक बोला जाता है, बिजली जैसे पहचान नहीं शकते, उसके समान गूढ़ हृदयवाली आर्या के चंचल और गहरे मन को पहचान नहीं शकते । उनको अकृत्य करते, गच्छ नायक की ओर से निवारण न किया जाए तो - वो स्त्री राज्य है लेकिन गच्छ नहीं है ।
[७७७] तपोलब्धियुक्त इन्द्र से अनुसरण की गई प्रत्यक्षा श्रुतदेवी समान साध्वी जिस गच्छ में कार्य करती हो वो स्त्री राज है लेकिन गच्छ नहीं है ।
[७७८) हे गौतम ! पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति, दश तरह का साधुधर्म उन सब में से किसी भी तरह से एक की भी स्खलना हो तो वो गच्छ नहीं है ।
[७७९-७८०] एक ही दिन के दिक्षित द्रमक साधु की सन्मुख चिरदीक्षित आर्या चंदनबाला साध्वी खड़ी होकर उसका सन्मान विनय करे और आसन पर न बैठे वो सब आर्या का विनय है । सौ साल के पर्यायवाले दीक्षित साध्वी हो और साधु आज के एक दिन का दीक्षित हो तो भी भक्ति पूर्ण हृदययुक्त विनय से साधु साध्वी को पूज्य है ।
[७८१-७८४] जो साधु-साध्वी के प्रति लाभित चीजो में गृद्धि करनेवाले है और खुद प्रतिलाभित में असंतुष्ट है । भिक्षाचर्या से भग्न होनेवाले ऐसे वो अर्णिका पुत्र आचार्य का दृष्टांत आगे करते है । अकाल के समय शिष्य-समुदाय को सूखे प्रदेश में भेज दिए थे खुद बुढ़ापे की कारण से भिक्षाचार्य करने के लिए समर्थ न थे वो बात वो पापी को पता नहीं था। और आर्या का लाभ ढूँढ़ते है । वो पापी उसमें से जो गुण ग्रहण करने के लायक है उसे