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महानिशीथ-५/-1८३०
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ऐसा ओसन्न या कठिन आचार पालनेवाला उद्यत विहारी बनकर वैसा नाटक करे । धर्म रहित या चारित्र में दूषण लगानेवाले हो ऐसा नाटक भूमि में तरह तरह के वेश धारण करे, उसकी तरह चारण या नाटक हो, पल में राम, पल में लक्ष्मण, पल में दश मस्तकवाला रावण बने
और फिर भयानक कान, आगे दाँत नीकल आए हो, बुढ़ापे युक्त गात्रवाला, निस्तेज फिके नेत्रवाला, काफी प्रपंच भरा विदुषक हो वैसे वेश बदलनेवाला, पलभर में तिर्यंच जाति के बंदर, हनुमान या केसरी सीह बने । ऐसे बहुरुपी, विदूषक करे वैसे बहुरुप करनेवाला हो । इस तरह हे गौतम ! शायद स्खलना से किसी असति को दीक्षा दी गई हो तो फिर उसे दूर-दूर के मार्ग के बीच आंतरा रखना । पास-पास साथ न चलना । उसके साथ सम्मान से बात-चीत न करना । पात्र मात्रक या उपकरण पडिलेहण न कराए उसे ग्रन्थ शास्त्र के उद्देश न करवाना, अनुज्ञा न देना गुप्त रहस्य की मंत्रणा न करना ।।
हे गौतम ! बताए गए दोष रहित हो उसे प्रवज्या देना । और फिर हे गौतम ! म्लेच्छ देश में पेदा होनेवाले अनार्य को दीक्षा न देना । उस प्रकार वेश्या पुत्र को दीक्षा न देना और फिर गणिका को दीक्षा न देना ओर नेत्र रहित को, हाँथ-पाँव कटे हुए हो, खंड़ित हो उसे और छेदित कान नासिकावाले हो, कोढ़ रोगवाले को, शरीर से परु नीकल रहा हो, शरीर सड़ा हुआ हो । पाँव से लूँला हो, चल न शकता हो, मूंगा, बहरा, अति उत्कट कषायवाले को और कई पाखंड़ी का संसर्ग करनेवाले को, उस प्रकार सज्जड़ राग-द्वेष मोह मिथ्यात्व के मल से लिप्त, पुत्र का त्याग करनेवाला, पुराने-खोखले गुरु और जिनालय कई देव देवी के स्थानक की आवक को भुगतनेवाले, कुम्हार हो और नट, नाटकीय, मल्ल, चारण, श्रुत पढ़ने में जड़, पाँव और हाँथ काम न करते हो, स्थूल शरीरवाला हो उसे प्रवज्या न देनी ।
उस तरह के नाम रहित, बलहीन, जातिहीन, निंदीत कुलहीन, बुद्धिहीन, प्रज्ञाहीन, अन्य प्रकार के अधमजातिवाले, जिसके कुल और स्वभाव पहचाने हो ऐसे को प्रवज्या न देना। यह पद या इसके अलावा दुसरे पद में स्खलना हो । जल्दबाझी हो तो देश के पूर्व क्रोड़ साल के तप से उस दोष की शुद्धि हो या न भी हो ।
[८३१-८३२] जिस प्रकार शास्त्र में किया है उस प्रकार गच्छ का व्यवस्था का यथार्थ पालन करके कर्मरूप रज के मैल और क्लेश से मुक्त हुए अनन्त आत्मा ने मुक्ति पद पाया है । देव असुर और जगत के मानव से नमन किए हुए, इस भुवन में जिनका अपूर्व प्रकट यश गाया गया है केवली तीर्थंकर भगवंत ने बताए अनुसार गण में रहे, आत्म पराक्रम करनेवाले. गच्छाधिपति काफी मोक्ष पाते है और पाएंगे ।
[८३३] हे भगवंत !जो कोई न जाने हुए शास्त्र के सद्भाववाले हो वह विधि से या अविधि से किसी गच्छ के आचार या मंडली धर्म के मूल या छत्तीस तरह के भेदवाले ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य के आचार को मन से वचन से या काया से किसी भी तरह कोई भी आचार स्थान में किसी गच्छाधिपति या आचार्य कि जिनते अंतःकरण में विशुद्ध परीणाम होने के बाद भी बार-बार चूक जाए । स्खलना पाए या प्ररूपणा करे या व्यवहार करे तो वो आराधक या अनाराधक गिना जाता है ? हे गौतम ! अनाराधक माना जाता है ।
• हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? हे गौतम ! जो इस बारह अंग रूप श्रुतज्ञान महाप्रमाण और अंत रहित है । जिसकी आदि नहीं या नाश नहीं, सद्भुत चीज की