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महानिशीथ-५/-/७८४
ग्रहण नहीं करते । जैसे कि अकाल के समय शिष्य को विहार-प्रवास करवाया । शिष्य पर की ममता का त्याग किया, वहाँ स्थिरवास किया । वो सोचने की बजाय एक क्षेत्र में स्थिरवास रहने की बात आगे करते है । इस लोक में कईं पड़ने के आलम्बन भरे है, प्रमादी अजयणावाले जीव लोक में जैसा आलम्बन देखते है, वैसा करते है ।
[७८५] जहाँ मुनिओं को बड़े कषाय से धिक्कार-परेशान किया जाए तो भी जैसे अच्छी तरह से बैठा हुआ लंगड़ा पुरुष हो तो वो उठता नहीं । उसी तरह जीसके कषाय खड़े नहीं होते उसे गच्छ कहते है ।
[७८६] धर्म के अंतराय से भयभीत, संसार के गर्भावास से डरे हुए मुनि अन्य मुनि को कषाय की उदीरणा न करे, वो गच्छ ।
[७८७] दान, शील, तप, भावना रूप चार तरह के धर्म के अंतराय से और भव से भयभीत ऐसे कई गीतार्थ जो गच्छ में हो वैसे गच्छ में वास करना चाहिए ।
[७८८] जिसमें चार गति के जीव कर्म के विपाक भुगतते देखकर और पहचानकर मुनि अपराध करनेवाले पर भी क्रोधित न हो वो गच्छ ।
[७८९-७९०] हे गौतम ! जिस गच्छ में पाँच वधस्थान (चक्की-साँबिल-चूल्हा-पनिहारुझाडु) में से एक भी हो उस गच्छ को त्रिविध से वोसिरा के दुसरे गच्छ में चले जाना वधस्थान और आरम्भ-से प्रवृत्त ऐसे उज्जवल वेशवाले गच्छ में वास न करना, चारित्र गुण से उज्जवल ऐसे गच्छ में वास करना ।
[७९१] दुर्जय आँठ कर्मरुपी मल्ल को जीतनेवाला प्रतिमल्ल और तीर्थंकर समान आचार्य की आज्ञा का जो उल्लंघन करते है वो कापुरुष है, लेकिन सत्पुरुष नहीं है ।
[७९२-७९३] भ्रष्टाचार करनेवाले, भ्रष्टाचार की उपेक्षा करनेवाले और उन्मार्ग में रहे आचार्य तीन मार्ग को नष्ट करनेवाले है । यदि आचार्य झूठे मार्ग में रहे हो, उन्मार्ग की प्ररूपणा करते हो, तो यकीनन भव्य जीव का समूह उस झूठे मार्ग को अनुसरण करते है, इसलिए उन्मार्गी आचार्य की परछाई भी मत लेना ।
[७९४-७९५] इस संसार में दुःख भुगतनेवाले एक जीव को प्रतिबोध करके उसे मार्ग के लिए स्थापन करते है, उसने देव और असुरवाले जगत में अमारी पड़ह की उद्घोषणा करवाई है ऐसा समजना । भूत, वर्तमान और भावि में ऐसे कुछ महापुरुष थे, है और होंगे कि जिनके चरणयुगल जगत के जीव को वंदन करने के लायक है, और परहित करने के लिए एकान्त कोशीश करने में जिनका काल पसार होता है, हे गौतम ! अनादिकाल से भूतकाल में हुआ है । भावि में होगा कि जिनके नाम करण करने से यकीनन प्रायश्चित होता है ।
[७९६-७९९] इस तरह की गच्छ की व्यवस्था दुप्पसह सुरि तक चलने की मगर उसमें बीच के काल में जो कोई उसका खंडन करेगा तो उस गणी को यकीनन अनन्त संसारी जानना । समग्र जगत के जीव के मंगल और एक कल्याण स्वरूप उत्तम निरुपद्रव सिद्धिपद विच्छेद करनेवाले को जो प्रायश्चित् लगे वो प्रायश्चित् गच्छ व्यवस्था खंडन करनेवाले को लगे। इसलिए शत्रु और मित्र पक्ष में समान मनवाले, परहित करने में बैचैन, कल्याण की इच्छावाले को और खुद को आचार्य की आज्ञा का उलंघन नहीं करना चाहिए ।
[८००-८०३तीन गाव में आसक्त ऐसे कईं आचार्य गच्छ की व्यवस्था का उल्लंघन