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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
गौतम ! वो साध्वी अति परलोक भीरु थी । अति निर्मल अंतःकरणवाली, क्षमा धारण करनेवाली, विनयवती, इन्द्रिय का दमन करनेवाली, ममत्त्व रहित, अति अभ्यास करनेवाले, अपने शरीर से भी ज्यादा छ काय के जीव पर वात्सल्य करनेवाली, भगवंत ने शास्त्र में बताने के अनुसार अति घोर वीर तप और चरण का सेवन करके शोषित शरीरखाली जिस प्रकार तीर्थंकर भगवंत ने प्ररूपेल है उसी प्रकार दीन मन से, माया, मद, अहंकार, ममत्व, रति, हँसी, क्रीड़ा, कंदर्प, नाथवादरहित, स्वामीभाव आद दोष से मुक्त साध्वी आचार्य के पास श्रामण्य का अनुपालन करती थी ।
गौतम ! वो साधु थे वैसे मनोहर न थे हे, गौतम ! किसी समय वो साधु आचार्य को कहने लगे कि हे भगवंत ! यदि आप आज्ञा दो तो हम तीर्थयात्रा करके चन्द्रप्रभुस्वामी के धर्मचक्र को वंदन करके वापस आए । तब हे गौतम! मन में दिनता लाए बिना, उतावले हुए बिना गम्भीर मधुर वाणी से उन आचार्य ने उन्हें प्रत्युत्तर दिया कि -शिष्य को 'इच्छाकारेण' ऐसे सुन्दर शब्द का प्रयोग करके 'सुविहितो की तीर्थयात्रा के लिए जाना न कल्पे' तो जब वापस आएंगे तब मैं तुम्हें यात्रा और चन्द्रप्रभु स्वामी को वंदन करवाऊँगा । दुसरी बात यह कि यात्रा करने में असंयम करने का मन होता है । इस कारण से तीर्थयात्रा का निषेध किया जाता है । तब शिष्य ने पूछा कि तीर्थयात्रा जानेवाले साधु को किस तरह असंयम होता है ? तब फिर 'इच्छाकारेण' - ऐसा दुसरी बार बुलाकर काफी लोगो के बीच व्याकुल होकर आक्रोश से उत्तर देंगे, लेकिन हे गौतम! उस समय आचार्य ने चिन्तवन किया कि मेरा वचन उल्लंघन करके भी यकीनन यह शिष्य जाएंगे ही । उस कारण से ही मीठे मीठे वचन बोलते है । अब किसी दिन मन से बहुत सोचकर उस आचार्य ने कहा कि तुम सहज भी सूत्र अर्थ जानते हो क्या ? यदि जानते हो तो जिस तरह के असंयम तीर्थ यात्रा में होता है, उस तरह के असंयम खुद जान शकते है । इस विषय में ज्यादा कहने से क्या फायदा ? दुसरा तुमने संसार का स्वरूप, जीवादिक चीज उसका यथायोग्य तत्त्व पहचाना है । अब किसी दिन कई उपाय समजाए । यात्रा जाते रोके तो भी वो आचार्य को छोड़कर क्रोध समान यम के साथ तीर्थयात्रा के लिए नीकल पड़े ।
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वो जाते-जाते कहीं आहार गवेषणा का दोष, किसी जगह हरी वनस्पतिकाय का संघट्ट करते, बीज काय चांपते थे । कोई चींटी आदि विकलेन्द्रिय जीव, त्रसकाय के संघट्टन, परितापन, उपद्रव से होनेवाले असंयम दोष लगाते थे । बैठे-बैठे (भी) प्रतिक्रमण न करते थे । किसी बड़े पात्र छोटे पात्र उपकरण आदि दोनों काल विधिवत् प्रेक्षण प्रमार्जन नहीं कर शकते थे । पड़िलेहण करते वायुकाय के जीव की विराधना हो वैसे वस्त्र सूखाते थे कितना कहना ? हे गौतम! उसका वर्णन कितना करे ?
अठ्ठारह हजार शीलांग, सत्तरह तरह के संयम बाह्य और अभ्यंतर बारह प्रकार के तप, क्षमा, आदि और अहिंसा लक्षण युक्त दश प्रकार के श्रमण धर्म को आदि के एक एक पद को कई बार लम्बे अरसे तक पढ़कर याद करके दोनों अंग रूप महाश्रुतस्कंध जिन्होंने स्थिरपरिचित किए है । कई भाँगाओ और सेंकड़ो जोड़ाण दुःख से करके जिन्होंने शीखे है, निरतिचार चारित्रधर्म का पालन किया है । यह सब जिस प्रकार कहा है वो निरतिचारपन से पालन करते थे | वो सब सुनकर उस गच्छाधिपति ने सोचा कि, मेरे, परोक्ष में गैरमोजुदगी