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महानिशीथ-४/-/६८२
[६८२] हे भगवंत ! क्या वो पाँच साधु को कुशील रूप में नागिल श्रावक ने बताया वो अपनी स्वेच्छा से या आगम शास्त्र के उपाय से ? हे गौतम बेचारे श्रावक को वैसा कहने का कौन-सा सामर्थ्य होना ? जो किसी अपनी स्वच्छंद मति से महानुभाव सुसाधु के अवर्णवाद बोले वो श्रावक जब हरिवंश के कुलतिलक मरकत रत्न समान श्याम कान्तिवाले बाईसवें धर्म तीर्थंकर अरिष्टनेमि नाम के थे । उनके पास वंदन के निमित्त से गए थे । वो हकीकत आचारांग सूत्र में अनन्तगमपर्यव के जानकार केवली भगवंत ने प्ररूपी थी । उसे यथार्थ रूप से हृदय में अवधारण किया था । वहाँ छत्तीस आचार की प्रज्ञापना की थी । उन आचार में से जो किसी साधु या साध्वी किसी भी आधार का उल्लंघन करे वो गृहस्थ के साथ तुलना करने के उचित माना जाता है । यदि आगम के खिलाफ व्यवहार करे, आचरण करे या प्ररूपे तो वो अनन्त अंसारी होता है ।
इसलिए हे गौतम ! जिसने एकमुखवस्त्रिका का अधिक परिग्रह किया तो उसके पाँचवें महाव्रत का भंग हुआ । जिसने स्त्री के अंगोपांग देखे, चिंतवन किया फिर उसने आलोचना की नहीं तो उसने ब्रह्मचर्य की गुप्ति की विराधना की उस विराधना से जैसे एक हिस्से में जले हुए वस्त्र को जला हुआ वस्त्र कहते है उसी तरह यहाँ चौथे महाव्रत का भंग कहते है जिसने अपने हाथों से भस्म उठा ली, बिना दिए ग्रहण किया उसके तीसरे महाव्रत का भंग हुआ । जिसने सूर्योदय होने से पहले सूर्योदय हआ ऐसा कहा उसके दुसरे महाव्रत का भंग हआ । जिस साधु ने सजीव जल से आँख साफ की और अविधि से मार्ग की भूमि में से दुसरी भूमि में संक्रमण किया । बीजकाय को चांपे वस्त्र की किनार से वनस्पतिकाय का संघट्टा हुआ, । बीजली का स्पर्श हुआ । अजयणा से फड़फड़ आवाज करने से मुहपति से वायुकाय की विराधना की । उन सबके पहले महाव्रत का भंग हुआ । उनके भंग से पाँच महाव्रतो का भंग हुआ । इसलिए हे गौतम ! आगम युक्ति से इन साधुओ को कुशील कहा है । क्योंकि उत्तरगुण का भंग भी इष्ट नहीं है तो फिर मूलगुण का भंग तो सर्वथा अनिष्ट होता है ।
हे भगवंत ! तो क्या इस दृष्टांत को सोचकर ही महाव्रत ग्रहण करे ? हे गौतम ! यह बात यथार्थ है, हे भगवंत ! किस कारण से ? हे गौतम ! सुश्रमण या सुश्रावक यह दो भेद ही बताए है । तीसरा भेद नहीं बताया । या तो भगवंत ने शास्त्र में जिस प्रकार उपदेश दिया है, उस प्रकार सुश्रमणपन पालन करो । उसी प्रकार सुश्रावकपन यथार्थ तरह से पालन करना चाहिए । लेकिन श्रमण को अपने श्रमणपन में अतिचार नहीं लगने देने चाहिए या श्रावक को श्रावकपन के व्रत में अतिचार नहीं लगाने चाहिए । निरतिचार व्रत प्रशंसा के लायक है । वैसे निरतिचार व्रत का पालन करना चाहिए । जो इस श्रमणधर्म सर्वविरति स्वरुप होने से निर्विकार छूटछाट बिना सुविचार और पूर्ण सोचयुक्त है । जिस प्रकार महाव्रत का पालन शास्त्रमें बताया है । उस प्रकार यथार्थ पालन करना चाहिए | जब कि श्रावक के लिए तो हजार तरह के विधान है | वो व्रत पालन करे और उसमें अतिचार न लगे उस प्रकार श्रावक अणुव्रत ग्रहण करे ।
[६८३] हे भगवंत ! वो नागिल श्रावक कहाँ पेदा हुआ ? हे गौतम ! वो सिद्धिगति में गया । हे भगवंत ! किस तरह ? हे गौतम ! महानुभाव नागिल ने उस कुशील साधु के पास से अलग होकर कई श्रावक और पेड़ से व्याप्त घोर भयानक अटवी में सर्व पाप कलिमल