Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापनासूत्र ]
'जीवस्तु कर्मबन्धन - बद्धो, वीरस्य भगवतः कर्त्ता । सन्तत्याऽनाद्यं च तदिष्टं कर्मात्मनः कर्तुः ॥
अर्थात् - भगवान महावीर के मत में कर्मबन्धन से बद्ध जीव ही कर्मों का कर्त्ता माना गया है। प्रवाह की अपेक्षा से कर्मबन्धन अनादिकालिक है। अतएव अनादिकालिक कर्मबन्धनबद्ध जीव (आत्मा) ही कर्मों का कर्ता अभीष्ट है। जीवेणं णिव्वत्तियस्स - जीव के द्वारा निष्पादित, अर्थात् जो ज्ञानावरणीय आदि कर्म जीव के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि के रूप में व्यवस्थापित किया गया है। आशय यह है कि कर्मबन्ध के समय जीव सर्वप्रथम कर्मवर्गणा के साधारण (अविशिष्ट)पुद्गलों को ही ग्रहण करता है अर्थात् उस समय ज्ञानावरणीय आदि भेद नहीं होता। तत्पश्चात् अनाभोगिक वीर्य के द्वारा उसी कर्मबन्धन के समय ज्ञानावरणीय आदि विशेषरूप में परिणत – व्यवस्थापित करता है, जैसे • आहार को रसादिरूप धातुओं के रूप में परिणत किया जाता है, इसी प्रकार साधारण कर्मवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके ज्ञानावरणीय आदि विशिष्ट रूपों में परिणत करना निर्वतन कहलाता है।
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जीवेणं परिणामियस्स - जीव के द्वारा परिणामित, अर्थात् ज्ञान- प्रद्वेष, ज्ञान-निह्नव आदि विशिष्ट कारणों उत्तरोत्तर परिणाम को प्राप्त किया गया। सयं या उदिण्णस्स • जो ज्ञानावरणीय आदि कर्म स्वतः ही उदय को प्राप्त हुआ है, अर्थात् – परनिरपेक्ष होकर स्वयं ही विपाक को प्राप्त हुआ है। परेण वा उदीरियस्स – अथवा दूसरे के द्वारा उदीरित किया गया है, अर्थात् • उदय को प्राप्त कराया गया है। तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स जो (ज्ञानावरणीयादि) कर्म स्व और पर के द्वारा उदय को प्राप्त किया जा रहा 1
अथवा
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स्वनिमित्त से उदय को प्राप्त गतिं पप्प - गति को प्राप्त करके, अर्थात् कोई कर्म किसी गति को प्राप्त करके तीव्र अनुभाव वाला हो जाता है, जैसे असातावेदनीय कर्म नरकगति को प्राप्त करके तीव्र अनुभाव वाला हो जाता है। नैरयिकों के लिए असातावेदनीय कर्म जितना तीव्र होता है, उतना तिर्यञ्चों आदि के लिए नहीं होता । ठितं पप्प - स्थिति को प्राप्त अर्थात् - सर्वोत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त अशुभकर्म मिथ्यात्व के समान तीव्र अनुभाव वाला होता है । भवं पप्प 1 भव को प्राप्त करके । आशय यह है कि कोई कोई कर्म किसी भवविशेष को पाकर अपना विपाक विशेष रूप से प्रकट करता है। जैसे मनुष्यभव या तिर्यञ्चभव को पाकर निद्रारूप दर्शनावरणीय कर्म अपना विशिष्ट अनुभाव प्रकट करता है । तात्पर्य यह है ज्ञानावरणयीय आदि कर्म उस उस गति, स्थिति या भव को प्राप्त के स्वयं उदय को प्राप्त (फलाभिमुख ) होता है।
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परनिमित्त से उदय को प्राप्त - पोग्गलं पप्प - पुद्गल को प्राप्त करके । अर्थात् काष्ठ, ढेला या तलवार आदि पुद्गलों को प्राप्त करके अथवा किसी कि द्वारा फेंके हुए काष्ठ, ढेला, पत्थर, खड्ग आदि के योग से भी असातावेदनीय आदि कर्म का या क्रोधादिरूप कषायमोहनीयकर्म आदि का उदय हो जाता है। पोग्गलपरिणामं पप्प • पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके, अर्थात् पुद्गल परिणाम के योग से भी कोई कर्म उदय में आ जाता है, जैसे- मदिरापान के परिणामस्वरूप ज्ञानावरणीयकर्म का अथवा भक्षित आहार के न पचने से असातावेदनीयकर्म का उदय हो जाता है ।
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१. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भाग. ५, पृ. १८१ से १८४ तक